सरकार बनाने के लिए वोट दें और चलाने के लिए टैक्स, फिर भी बदतमीजी के लिये तैयार रहें…
आप एक आम आदमी हैं। आपका कर्तव्य है कि किसी भैया को नेता बनाने के लिए आप चंदा दें। उसके बाद इसके बाद जब वो किसी पार्टी से टिकट लाये तो सरकार बनाने के लिए आप उसे वोट भी दें। रुकिए, अभी आपका काम खत्म नहीं हुआ है। अब आपने जो सरकार बनाई है, उसको चलाने के लिए अभी आपको टैक्स भी देना है।
अगर आप समझते हैं कि आप की भूमिका यहीं खत्म हो गई है, तो आप फिर गलत हैं। अगर गलती से भी आप का वास्ता इस ‘सरकार’ से पड़ गया तो आपको उसे अपना माई बाप मानते हुए चढ़ावा भी देना है, जिसे लोकतंत्र की परिभाषा में आपका नौकर माना जाता है। यह जो माई बाप है। वह सीधे शब्दों में प्रशासन कहलाता है। यह किसी भी दिन आपके घर में घुस के आपका घर नाप सकता है और बदतमीजी के साथ आपको अतिक्रमण का नोटिस दे सकता है। यह कभी भी आपकी दुकान पर ताला डलवा सकता है। यह आपके ठेले पलट सकता है, सामान जप्त कर सकता है और उसका मन इस इससे भी ना भरे तो आपको किसी स्थाई या अस्थाई जेल भी भेज सकता है।
पिपलियाहाना का अंडे वाला बच्चा इस व्यवस्था को नहीं जानता क्योंकि उसने अब तक वोट नहीं दिया है। किसी “अपनी” पार्टी की अपनी सरकार के लिए फेसबुक पर पोस्ट भी नहीं किए हैं, किसी राजनीतिक दल की आईटी सेल द्वारा चलाये मैसेज भी व्हाट्सएप पर फॉरवर्ड करके खुद को बुद्धिमान घोषित नहीं किया है। कुल मिलाकर उसने रामचरितमानस भी नहीं पड़ी है जिसमें कहा गया है कि समरथ को नहिं दोष गुसाईं…!!वर्तमान समय में पीली और सफेद गाड़ियां समरथ हैं और वह कुछ भी उल्टा पुल्टा कर दें, उन्हें कोई दोष नहीं लगेगा। उल्टे सरकार के समर्थक उनके पैरोकार भी खड़े हो जाएंगे और अंडे वाले बच्चे को नियम कायदे सिखाएंगे।
कोरोना तो अब आया है, व्यवस्था में यह बीमारी 1772 में वारेन हेस्टिंग्ज लेकर आए थे। गोरों को भारतीयों को हांकने के लिए, डराने के लिए, धमकाने के लिए और उनका शोषण करने के लिए एक अधिकारी की जरूरत थी। इस अधिकारी को सारी ताकत दी गई। यह राजस्व के रिकॉर्ड में हेराफेरी कर सकता था, खुद ही आदेश जारी आदेश जारी करके न्यायाधीश के रूप में खुद ही उसकी सुनवाई कर सकता था। किसी को भी किसी भी आरोप में बंद कर सकता था। कुल मिलाकर यह एक ऐसा प्रकाश पुंज था जो भारतीय व्यवस्था का वास्तविक अंधियारा साबित हुआ है।
1947 में गोरे चले गए लेकिन अपने इस काले प्रतिनिधि को यही छोड़ गए। शायद उन्हें अपनी जनता के साथ न्याय करना था इसलिए उन्होंने कभी अपने देश में कलेक्टर की नियुक्ति नहीं की। दरअसल इस काले अंग्रेज को जीवित रखने का पाप हमारी सरकारों के सिर मढ़ा जाना चाहिए। वे 1772 की इस व्यवस्था में सुई की नोक बराबर भी बदलाव नहीं कर पाए। उल्टे उन्होंने इसका माइक्रो संस्करण के रूप में पटवारी और पैदा कर दिया। इन दोनों के बीच की श्रृंखला भी कम खतरनाक नहीं है। इनकी लीला वही जानता है जिसका इनसे पाला पड़ा है। ऐसा आदमी सीरिया में भी सुकून ढूंढ सकता है लेकिन दूसरी बार इनकी छाया में जाने से भी शर्तिया बचेगा।
अगर पत्रकारों को और उत्साही जर्नलिज्म करना हो तो वे हिंसा का विरोध करते हुए भी तेलंगाना के उस किसान का इंटरव्यू कर सकते हैं, जिस पर एक तहसीलदार को जिंदा जला देने का आरोप है।
सरकार को आर्थिक विकास की परिभाषा समझाकर रेल और एयरपोर्ट किराए पर देने का मॉडल सुझाने वाले सलाहकारों ने किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को यह नहीं समझाया कि काले अंग्रेजों के पास बंगलों के नाम पर जितनी जगह पड़ी हुई है, यदि उसे बेच दिया जाए तो उससे मिलने वाले पैसों के ब्याज में ही इनके वेतन का आजीवन भुगतान हो सकता है?
पत्रकारों के लिए बंद गली का आखरी मकान है कोरोना
यह जानने की कोशिश कीजिए कि आपके प्रशासन के घर शहर में किस जगह हैं और उनकी कीमत क्या है? जब सरकारी नौकरियों के अवसर नाम मात्र के बचे हों ऐसे में उन्हें सरकारी आवास की सुविधा देना सरकार का एक ऐसा खर्च माना जाना चाहिए जिसने उसकी लाखो एकड़ शहरी भूमि ब्लॉक कर रखी है जिससे कि उसे न तो कोई संपत्ति कर मिलता है ना कोई रजिस्ट्री का पैसा हां उल्टा रिपेयर के नाम पर हर साल मोटा पैसा अलग खर्च कर रहे हैं।
एयरपोर्ट और रेलवे को किराए पर देने से इस जमीन को ठिकाने लगा देना निश्चित रूप से आर्थिक विकास का एक उत्तम मॉडल साबित होगा। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकार का कथित आर्थिक विशेषज्ञ वही काले अंग्रेज हैं, जिन्हें वारेन हेस्टिंग्स 1772 में इस देश में छोड़ गए थे। और जो चाहे कुछ भी हो जाये अपने रुतबे और सुविधा में कोई कटौती बर्दाश्त नहीं करेंगे।
कोरोना काल ने हमको बहुत कुछ दिखाया है, बहुत कुछ सिखाया है। लेकिन इसका असली हासिल यही होगा जब हम इसे इन काले अंग्रेजों से छुटकारा पाने के अवसर के रूप में लें। नहीं तो चंदा,वोट, टैक्स और चढ़ावा यह पीढ़ियों तक चलता ही रहेगा।