भारत में क्रिकेट धर्म नहीं एक मानसिक रोग है..!!
आप Cricket Australia के ट्विटर हैंडल पर जाएं या ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों के, आप पाएंगे कि उनके वर्ल्ड कप जीतने के बाद के ट्वीट पर 80% से ज्यादा रिप्लाई भारतीयों के हैं। ऑस्ट्रेलिया के लोगों में वर्ल्ड कप को लेकर कोई पागलपन नहीं है क्योंकि उनके पास न तो गिनेचुने खेल हैं और न ही वहां के इवेंट मैनेजरों ने खेल को धर्म और खिलाड़ियों को भगवान बनाकर परोसा है। वैसे भी छठी बार विश्व कप, वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप और एशेज जीतकर उन्होंने यह साबित कर दिया है कि वो इस खेल के गॉडफादर हैं।
सोचिएगा यदि विश्व कप का फाइनल ऑस्ट्रेलिया में होता और ट्रेविस हेड की जगह विराट कोहली ने शतक बनाया होता तो जितनी तालियां अहमदाबाद में ट्रेविस हेड के शतक पर बजी उससे दोगुनी तालियां ऑस्ट्रेलिया में कोहली के लिए बजतीं क्योंकि उन्हें पता है यह खेल है। ये न धर्म है न युद्ध।
खेल प्रेमी ऐसे नहीं होते कि विपक्षी टीम का खिलाड़ी चौके छक्के लगाए तो मैदान में सन्नाटा छा जाए।
भारत में क्रिकेट धर्म है जैसी अवधारणाएं केवल बाजारवाद का हिस्सा है, जिसे मूर्ख समझना नहीं चाहते। भौकाल के पीछे भागना हमारी फितरत है। किसी भी चीज का भौकाल बना दो, बिना सोचे-समझे हम पूछ हिलाते पीछे चल पड़ेंगे।
अब लोगों को समस्या है कि शराब पीते हुए मिशेल मार्श ने वर्ल्ड कप की ट्रॉफी के ऊपर अपना पैर रखा है। मेरे हिसाब उसने ठीक किया है। उसके संस्कारों में वर्ल्ड कप ट्रॉफी की यही कीमत है, तो आप क्या कर सकते हैं? आप ही के देश में आप ही के संविधान से बंधा हुआ एक समुदाय उस चीज को खाता है, जिसकी आप पूजा करते हैं। तब आप क्या कर पाते हैं जो आप मिचेल मार्श का पैर हटाना चाहते हैं? अब ऑस्ट्रेलिया लौटकर मिशेल मार्श अपने पूर्व क्रिकेटर पिता ज्यॉफ मार्श के पैर छूकर आशीर्वाद लेने से तो रहे जैसा कि आप जीतने पर करते।
आप यह तर्क दे सकते हैं कि भारतीय भावुक होते हैं। इसे स्वीकार भी किया जा सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि क्रिकेट के मामले में वो मानसिक रूप से बीमार हैं और इसका ईलाज यही है कि वह भावुक कर देने वाली इवेंट बाजी से बाहर निकलें..!!
वैसे आपको यह भी पता होना चाहिए कि चैंपियनशिप जीतने के हिसाब से भारत का सबसे सफल खेल क्रिकेट नहीं बैडमिंटन है।