मप्र में 45% सांसद और 40% विधायक ओबीसी से तो फिर आरक्षण क्यों?

kamal nath - shivraj

मुख्यमंत्री जी यदि प्रदेश में अगड़ी जातियां पिछड़ों का शोषण कर रही होती तो क्या चार बार सीएम बन पाते?

हिंदी साहित्य के कालजयी उपन्यास राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने एक जगह लिखा है कि यदि जाति से उसका सरनेम ले लिया जाए तो फिर जाति के पास अपना कुछ नहीं बचता। उसी तरह से कहा जा सकता है कि यदि नेता जाति पर आ जाए तो समझ लेना चाहिए कि उसके पास और कुछ नहीं बचा है। 

उत्तर प्रदेश से अपनी सीमाएं साझा करने वाला मध्य प्रदेश अब तक जाति की यूपी वाली राजनीति से अछूता रहा है। लेकिन अब ओबीसी का खेल शुरू हो गया है। शुरू करने वाले कौन है वो किसी से छिपे नहीं हैं, और कौन-कौन मौन हैं, यह भी सबके सामने है। 

राजनीति में सांसद और विधायक बनना सबसे कठिन माना जाता है। जिन वर्गों का प्रतिनिधित्व संसद और विधानसभाओं में कम था, संविधान में उनके लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। इस नाते से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए निश्चित संख्या में सीटें आरक्षित की गई थीं। विश्वास कीजिए नौकरी से शुरू हुआ आरक्षण का यह खेल राजनीति में आया और यही “राजनीति” इसे आगे संसद और विधानसभाओं तक भी ले जाएगी, क्योंकि नेताओं के पास उपलब्धियों का टोटा है इसलिए उन्हें ले-देकर जातियों पर ही जाना है। 

लेकिन इस मामले में गिनती लगा लेने से कोई समस्या नहीं आने वाली। हां बस इतना हो सकता है कि कईं “माई के लाल” अपनी “जेब” में पड़े हुए वोटों से आंख ना मिला सकें। 

मध्य प्रदेश की बात करें तो मामाजी बहुत आसानी से गिनती लगा सकते हैं कि 230 सदस्यों की विधानसभाओं में 82 सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित है। शेष बची 148 सीटों में कौन सा विधायक कौन जात का है, यह पूछने के लिए रवीश कुमार को बुलाने की जरूरत नहीं है कि कौन जात के हो बबुआ? नामों से ही पता चलता है कि वर्तमान विधानसभा में कम से कम 55- सदस्य पिछड़ा वर्ग के हैं (वास्तव में संख्या 60 से ज्यादा भी हो सकती है) । यदि प्रतिशत में बहुत करें तो आंकड़ा औसलन 40% का बैठता है। 

इससे आगे बढ़ें और लोकसभा सांसदों की बात करें तो 29 लोकसभा सीटों वाले मध्यप्रदेश में 10 सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं। शेष बची 19 सीटों में से 9 सीटों पर सांसद पिछड़ा वर्ग के हैं।  यहां पर भी यह प्रतिशत 45 के आसपास बैठता है। मुझे नहीं लगता कि पंच, सरपंच या जनपद और जिला पंचायत का सदस्य बनना सांसद और विधायक बनने से कठिन काम है?

कांग्रेस के 48 तो भाजपा के 44 प्रतिशत प्रत्याशी ओबीसी

2018 के विधानसभा चुनाव के समय से ही प्रदेश में ओबीसी आरक्षण की आग सुलग रही है। इन चुनाव में भाजपा ने 148 सामान्य सीटों पर 66 ओबीसी प्रत्याशी उतारे थे तो वहीं कांग्रेस ने 71 उम्मीदवार ओबीसी के दिए थे। प्रतिशत की बात करें तो भाजपा ने 44 प्रतिशत तो कांग्रेस के 48 प्रतिशत प्रत्याशी ओबीसी थे। इंदौर जैसे शहर की बात करें तो यहां पर सामान्य वर्ग की आठ विधानसभा सीटों में से चार पर ओबीसी विधायक हैं। यानी पूरे पचास प्रतिशत।

तो मामा जी और कमलनाथ जी सवाल यह है कि जब लोकसभा और विधानसभा में पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण नहीं है तब भी वहां पर इनका प्रतिनिधित्व 27% के आप के आरक्षण के आंकड़े से कहीं ज्यादा है तो ऐसे में स्थानीय निकायों में 27% की आरक्षण पर आप की सुई क्यों अटकी हुई है? 

कहीं ऐसा तो नहीं कि मामा और कमलनाथ दोनों मिलकर पिछड़ा वर्ग को 27% में सीमित कर देना चाहते हैं जबकि वास्तव में अनारक्षित सीटो पर इनके प्रतिनिधित्व का प्रतिशत इससे कहीं ज्यादा है। या फिर से माना जाए कि आप विभाजन की एक और रेखा खींचना चाहते हैं।

और मामाजी यदि सवर्ण जातियां औबीसी को आगे नहीं बढ़ने देना चाहती तो क्या आप बामन-बनिया और ठाकुर की पार्टी से चार बार मुख्यमंत्री बन जाते? कभी-कभी अपने आपका उदाहरण ले लेना बुरा नहीं है?

जाते -जाते साध्वी उमा भारती से भी एक सवाल धर्म के नाम पर किसी का तुष्टिकरण और जाति के नाम पर किसी धर्म का विभाजन , इनमें से देश के लिए क्या ज्यादा बुरा है?

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