आप चैनल खरीद सकते हैं पत्रकार नहीं …
यदि विश्व का सबसे अमीर आदमी भी आपको नहीं खरीद पाए तो या तो आप पागल हैं या फिर महामानव? लेकिन रविश कुमार ने चैनल के साथ बिकने से इंकार कर दिया। वो भी उस समय में जब कि पत्रकारों की तगड़े डिसकाउंट के साथ सेल लगी हुई हैं और एक के साथ पता नहीं कितने फ्री का खुला ऑफर है। वैचारिक जाजम पर मैं रविश कुमार के साथ एक मिनट भी नहीं बैठ सकता। मैने कईं बार सोशल मीडिया पर उनका उपहास किया है। उनके इस्तीफे पर भी एक वर्ग उनका उपहास कर रहा है। मीम्स बन रहे हैं। लेकिन रविश कुमार ने इस्तीफे की चार लाइन से पैसों के मामले में विश्व के सबसे बड़े आदमी को पैसे की औकात समझा दी है। उपहास उड़ाने से पहले सोचिएगा कि अड़ानी आज क्या सोच रहा होगा?
रविश कुमार के लिए बहुत आसान था कि किसी नेता की तरह कह देते कि मेरे प्राइम टाइम को गलत समझा गया है। नरेंद्र मोदी को चोर कहने वाला जब मोदी जी की सरकार में मंत्री बन सकता है या फिर राज्य सभा में खुलेआम रम में राम, जिन में जानकी और ठर्रा में हनुमान बसाने वाले का लड़का योगी जी की कैबिमेट में मंत्री बन सकता है, तो रविश कुमार भी अड़ानी के एनडीटीवी में पत्रकार रह सकते थे। एक शाब्दिक खेद ही तो व्यक्त करना था, अड़ानी के पूंजीवाद की प्रशंसा ही तो करना थी या फिर बंद कमरे में पैर ही तो पकड़ने थे।
लेकिन रविश कुमार का कुल संपत्ति ही ये है कि वे सत्ता के बदलाव के साथ नहीं बदले। नहीं तो देखिए नया मुल्ला पांच बार नमाज पढ़ता है की तर्ज पर हिन्दुत्व में योगी से प्रतियोगिता करने वाला भाजपा का दूसरा मुख्यमंत्री पूर्व कांग्रेसी हिमंत बिस्व शर्मा है।
नेताओं की छोड़ें और यदि पत्रकारों की बात करें तो आज वो लोग अपना भगवा डीएनए दिखा रहे हैं जो कल तक अहमद पटेल के दरवाजे के कुत्ते हुआ करते थे, जो भजनलाल के पिछवाड़े की चौकीदारी करते थे। अब जब सत्ता बदलेगी तो ये फिर कोई नया अहमद पटेल और भजनलाल खोज लेंगे।
ये सूची समग्र नहीं है। इनमें वो भी हैं जो कल तक दीपावली के पटाखों में प्रदूषण खोजते थे और अब उसी धुएं में भगवा खोज रहे हैं। वो भी हैं जो हर प्रधानमंत्री के प्रशंसक थे। राहुल गांधी से पद्मश्री ले आए थे और जब उन्हें ये लग रहा था कि मोदी लंबे नहीं टिक पाएंगे तो तब दिसंबर 2014 तक कांग्रेसी सांसद के अखबार में लेख लिख रहे थे कि मोदी ने प्रसार भारती को मोदी भारती बना दिया है। राहुल बाबा से राज्यसभा की गुहार लगा रहे थे लेकिन राहुल को पता था कि जब तक सत्ता है ये तब तक साथ है। राज्यसभा नहीं मिली इसलिए अब इसकी आस में रंग बदल लिया है और पूरी संभावना है कि ये हसरत यहां पूरी हो जाएगी।
याद होगा कि अजुर्न सिंह के राज में दो बार कुलपति बनने वाला व्यक्ति बीजेपी के राज में पहले नैक का डायरेक्टर बना और बाद में यूजीसी चेयरमैन। क्या अल्पसंख्यकों की राजनीति के सबसे बड़े पैरोकार अर्जुन सिंह ने किसी संघी को बीएचयू का कुलपति बनाया होगा?
खैर दो विचारधाराओं की तुलना कर के सही का चुनाव करना बुरा नहीं है। किसी को भी अपनी विचारधारा बदलने का अधिकार है लेकिन क्या सत्ता के आधार पर सही या गलत तय करना विचारधारा है?
ये नहीं माना जा सकता कि ये विकल्प रविश कुमार के पास नहीं थे। लेकिन रविश कुमार के पास रविश कुमार का कोई विकल्प नहीं था। आज के समय में जब स्वयंभू तौर पर खुद को देश का पहले नंबर का अखबार मानने वाले भी अपनी हेडलाइन तय नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में पत्रकारिता को नए पर्यायवाची की जरुरत महसूस हो रही है। अब जर्नलिज्म को लाइजनिस्म कहा जा सकता है। ताजा उदाहरण है भारतीय किसान संघ का भोपाल में हुआ धरना। लंबे समय बाद राजधानी में किसान इतने बड़े पैमाने पर जुटे। मुख्यमंत्री को स्वयं आना पड़ा लेकिन अगले दिन स्वयंभू राष्ट्रवादी मीडिया में ये खबर सिंगल कॉलम थी। लेकिन किसी ने किसी मीडिया को वामपंथी नहीं कहा। विचारधारा छोड़िए यदि केवल पत्रकारिता की बात करें तो ये खबरे कम से कम तीन कॉलम की होना चाहिए थी।
मामला स्पष्ट है कि यू टर्न केवल विचारधारा के लिए नहीं लिए गए हैं। एक ऐसा भी अखबार है जिसका इतिहास है कि यूपी में जिस पार्टी की सत्ता आती है, वे उस पार्टी से राज्यसभा चले जाते हैं। उन्हें भाजपा से सपा और सपा से भाजपा जाने में कोई वैचारिक परेशानी नहीं होती। शायद इसलिए ही सफल उद्योगपति हैं। जिन्हें ऐसा लगता है कि अड़ानी और अंबानी मोदी के साथ है उन्हें इंदिरा गांधी के साथ धीरूभाई अंबानी के डिनर के फोटो देख लेने चाहिए। ये फोटो राहुल गांधी ने भी देखना चाहिए। सत्ता में जो भी होगा ये उसके साथ होंगे। इसलिए इनके पीछे अपने विचार या विचारधारा खर्च मत कीजिए।
लेकिन नौकरी करना और पत्रकारिता करना दो अलग-अलग बातें हैं। पत्रकारिता का भला इसी में है कि जिसे नौकरी करना है उसे पत्रकारिता नहीं करना चाहिए।
छोड़ने वाले क्या पाते हैं ये किसी को नहीं पता। 2011 में मैने भी एक वैचारिक मतभेद के चलते नौकरी छोड़ी थी। उस समय एक स्थापित पत्रकार ने मुझसे कहा था कि यार इनके लिए ‘इतना’ नहीं करना है। 2014 के बाद में उन्होंने ‘इतना’ किया आज सरकारी गाड़ी, बगंला और स्टेटस सब कुछ है। छोड़ने वाले सिर्फ छोड़ते हैं एक दिन ये बात रविश कुमार भी समझ जाएंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अब नहीं छोडूंगा । मैं 2022 में भी वही करूंगा जो मैंने 2011 में किया था ।
सारे मतभेदों के बाद भी रविश कुमार और एनडीटीवी सदा दिल में रहेंगे। नई यात्रा की शुभकामनाएं।
सुचेन्द्र मिश्रा