21st November 2024

लोकतंत्र के प्रलोभन तंत्र हो जाने का बाय प्रोडक्ट है बांग्लादेश

सुचेन्द्र मिश्रा

तख्ता पलट के बाद बांग्लादेशियों को शांति से बैठकर यह सोचना चाहिए कि उनके पुरखों ने 53 साल पहले भी इसी तरह की एक लड़ाई लड़ी थी। वह भी अपना बांग्लादेश बनने के लिए थी। 53 साल बाद एक बार फिर वे सड़कों पर हैं, तोड़फोड़ और लूटपाट कर रहे हैं हालांकि 53 साल पहले यह काम पाकिस्तानियों ने किया था। बांग्लादेशियों के पास 53 साल बाद फिर वही समय आया है जब उन्हें सोचना चाहिए कि 53 साल में क्या हासिल हुआ? क्या 53 साल में वे सोनार बांग्ला बना पाए? जिन सपनों को लेकर उनके पुरखों ने कुर्बानियां दी थी क्या उन्हें साकार कर पाए?

इसका सीधा सा जवाब है कि नहीं। यदि यह सब बातें सही साबित हो जाती तो आज बांग्लादेश यूं सड़कों पर नहीं होता। बांग्लादेशी सड़कों पर हैं और देश चौराहे पर खड़ा हुआ है। बांग्लादेशियों को अब सोचना चाहिए कि 53 साल पहले की गलती क्या थी और वह अब तक किस तरह से जारी रही?
समस्याएं लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों में है। दिक्कत यह है कि जनता ने सरकारों को गृहलक्ष्मी का जिन्न समझ रखा है और सरकारों ने जनता को वादों और दावों का गुलाम? वोट देते इनसे समय गुमराह हो जाने वाले मतदाता एक भटकी हुई सरकार ही चुनते हैं।

बांग्लादेश में 1971 के बाद से अब तक कितने आम चुनाव हुए हैं इनमें हर राजनीतिक दल कुछ वादों और कुछ दावों के साथ मैदान में उतरा था लेकिन बांग्लादेशियों ने अगले चुनाव में पिछले चुनाव का हिसाब नहीं मांगा और न ही हिसाब किया। इसके चलते हालात यह हो गए कि सरकारें जनता पर सवार हो गईं और अंत में जनता को सरकार पर सवार होने के लिए इस तरह से सड़कों पर उतरकर लूटपाट करनी पड़ी, खून खराबा करना पड़ा।

इन हालात में कुछ नेताओं और पत्रकारों ने भारत में भी इस तरह की स्थिति के बारे में कुछ कमेंट किए हैं। यह निश्चित रूप से निंदनीय हैं लेकिन यहां एक सवाल और उठता है कि क्या हमारे यहां भी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारें वास्तव में प्रलोभनों से चुनी हुई सरकार नहीं है? क्या प्रजातंत्र प्रलोभन तंत्र नहीं हो गया है? तो इसका जवाब निश्चित रूप से हां है। सरकार के मुख्य रूप से तीन काम है सरकारी अस्पताल में इलाज हो, दूसरा सरकारी स्कूलों में पढ़ाई हो और तीसरा सरकारी कार्यालय में बिना लेने-देन के जनता का काम हो। लेकिन सरकारें इन मूल कामों को छोड़कर आपकी बेटी का ब्याह कराना चाहती हैं,आपके बुजुर्ग मां-बाप को तीर्थ यात्रा कराना चाहती हैं, घर बैठे महिलाओं को 1000 ₹1500 महीने की बेकार देनी चाहती हैं। दरअसल उन्होंने लोकतंत्र की कीमत इतनी ही लगा रखी है और दिक्कत यह है कि आप इन सबसे खुश हैं!

आपके राजनीतिक विचार कुछ भी हो सकते हैं और आप इसके आधार पर मतदान भी कर सकते हैं लेकिन लोकतंत्र यह अपेक्षा करता है कि आप एक बार सरकार चुन लेने के बाद विपक्षी की भूमिका में आ जाएं। हर दिन आपको आपकी सरकार से पूछना होगा कि वह आपके लिए आखिर क्या कर रही है और सरकार आपके भावनाओं में उलझाने की कोशिश भी करेगी। सरकार और सरकार के महंगे सलाहकार यह बहुत आराम से जानते हैं कि आपको किन बातों से भरमाया जा सकता है। वे उन्हीं में आपको उलझा देते हैं और आप विचारधारा के गणित में उलझे रहते हैं। अपनी विचारधारा को बाहर निकाल कर रखिए और विश्लेषण कीजिए कि जो आपसे एक विशेष विचारधारा पर वोट मांग रहे हैं उसे स्वयं उस विचार को कितना फॉलो करते हैं!

विनेश फोगाट का मामला भारतीय लोगों की इसी वैचारिक गुलामी का प्रतीक है। यह मामला भारत के राजनीतिक विभाजन को खेल तक ले जाता है। राजनीतिक आधार पर ही इस पर प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक वर्ग के हिसाब से ये विनेश फोगाट की गलती है, वह बिना ट्रायल के खेलना चाहती, वो अपना वजन मैनेज नहीं कर पाई, उसने दूसरों का हक मारा जैसी मनगढ़ंत बातें सोशल मीडिया पर चल रही हैं?
दूसरी ओर कुछ लोग इस मामले में सरकार को कटघरे में खड़ा करने में जुटे हुए हैं उनका मानना है कि विनेश ने सरकार का विरोध किया था इसके चलते सरकार ने उससे हिसाब बराबर किया है। यह मानने वाले लोगों को लगता है कि यदि विनेश स्वर्ण पदक जीत जाती तो प्रधानमंत्री किस तरह से उससे नज़रें मिलाते ? यह भी एक मनगढ़ंत कहानी है जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है।

यहां हम विनेश फोगाट के मामले की तहकीकात नहीं कर रहे हैं। इसके जरिए बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हमने खेलों को भी राजनीति से अछूता नहीं रखा है। खिलाड़ी भी अपनी अपनी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब से बांट रखे हैं। जिस लोकतंत्र में हम आज तक यह नहीं सीख पाए कि सरकार हमारी नौकर है और हम उसके बॉस, हम उस लोकतंत्र में हमेशा एक राजनीतिक विचार की बंधुआ मजदूरी ही करते रहेंगे। बांग्लादेश होने से बचने के लिए लोकतंत्र को समझना भी जरूरी है।

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