चांद का क्या कसूर अगर रात बेवफा निकली…

किस्सा-ऐ-बीआरटीएस

इंदौर की ट्रैफिक समस्याओं का समाधान न तो बीआरटीएस से हुआ था और ना उसके हटने से होगा। लेकिन ये याद रखिए जिन कारणों से बीआरटीएस असफल हुआ है उन्हीं कारणों से चुनावी मेट्रो भी असफल होगी। बीआरटीएस के रहते हुए भी क्या आप गीता भवन चौराहा संभाल पा रहे थे? माय होम की तरफ से आने वाला ट्रैफिक नो एंट्री में घुसकर खड़ा रहता है लेकिन कोई रोकने वाला नहीं है।

पत्रकार चौराहे से पलासिया की तरफ जाते हैं तो बड़वानी प्लाजा के सामने यू टर्न लेने वाली गाड़ियां ट्रैफिक जाम करती हैं, इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है। इतना ही नहीं बड़वानी प्लाजा के सामने वाली गली से गलत दिशा से ट्रैफिक आता है, वह भी यातायात बाधित करता है। क्या इन दोनों चीजों के लिए बीआरटीएस जिम्मेदार है? यह दो केवल उदाहरण मात्र हैं। पूरे शहर में ट्रैफिक का जो कचूमर निकला हुआ है वह किसी से छिपा नहीं है।

इसकी बात करने की बजाय हेलमेट और सीट बेल्ट के चालान ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। पॉल्यूशन सर्टिफिकेट का चालान बनाना भी जरूरी है क्योंकि वे लोग जो इसकी मशीन लेकर बैठे हैं, उनका घर भी तो चलाना है? दरअसल आम इंदौरी की मानसिकता को समझने में शहर को पैतृक संपत्ति मानने वाले अफसर और नेता दोनों असफल रहे हैं। नेताओं की तो बात करना ही बेमानी है क्योंकि इंदौर के नेता 50 बरस से राष्ट्रीय तो छोड़िए प्रदेश का नेतृत्व भी नहीं पा सके हैं। उन्होंने अपना पूरा युग जी हुजूरी में ही बिता दिया और यह समझने के बाद अफसर भी उनके सिर पर सवार हो गए हैं। 

दरअसल इंदौर की समस्या यह है कि यहां किसी भी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के बारे में यह माना जाता है कि यह उनके लिए है जिनके पास अपने दो पहियां वाहन नहीं है। हमारी व्यवस्था में यह माना जाता है कि नगर सेवा से लेकर सिटी बस तक का उपयोग वह करते हैं जिनकी हैसियत वाहन खरीदने की नहीं है और जब बात हैसियत की आ जाए तो वह भले ही चवन्नी की ना हो लेकिन सवा रुपए की दिखानी जरूरी होती है।

इस बात को गलत साबित करने की जिम्मेदारी अपने आप को इंदौर का शुभ चिंतक बताने वाले लोगों की होनी चाहिए थी लेकिन पता चला है कि जिस अफसर को 10 लाख रुपए के वाहन की पात्रता है वह भी 25 लाख रुपए की इनोवा में घूम रहा है और नेता तो छोड़िए उसका चमचा तक हूटर लगाकर फॉर्च्यूनर में तैर रहा है। ऐसे में अब आप आम आदमी से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह दो पहिया वाहन के लिए भी एडिक्शन ना पाले ?

 याद रखिए यही वह कारण है जो बीआरटीएस को असफल करके गया है और अब मेट्रो को असफल करेगा। अपने 19 वर्ष के जीवन में बीआरटीएस बहुत सारे लोगों को एक्सपोज कर गया है। इंदौर में बीआरटीएस तब लाया गया था उस समय दिल्ली में मेट्रो चल चुकी थी। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि इसकी बजाय सीधे मेट्रो की ही तैयारी क्यों नहीं की गई? और बीआरटीएस को हटाने का निर्णय लेने वालों को यह पता होना चाहिए कि आप कितनी ही चौड़ी सड़क कर दें जब तक आप लोगों की आदतें नहीं बदलेंगे कुछ नहीं होने वाला।

इंदौर की ट्रैफिक में जितनी अराजकता की स्थिति आज है उतनी कभी नहीं रही। जब देश भर के शहरों में शहरी सीमा के बाहर बस अड्डे बनाए जा रहे हैं उस समय इंदौर के कथित रूप से दूरदर्शी नेतृत्व ने एक बार फिर सरवटे बस स्टैंड बनाया और इसे शहर की उपलब्धि बताया। हाल यह है कि वहां से निकलने वाली बस शहर के बाहर जाने से पहले जहां मर्जी आए वहां खड़ी होकर सवारी बैठा रही हैं। अगर यह आपको झेलना हो तो शिवाजी प्रतिमा चौक पर देखिए। लंबा सिग्नल पर करने के बाद में बस आयकर भवन के गेट पर जाकर खड़ी हो जाती हैं? आखिर इन्हें वहां सवारी बैठाने की अनुमति किसने दी और बिना अनुमति के अगर यह चल रहा है तो जिम्मेदार चुप क्यों है?

इन परिस्थितियों में बीआरटीएस रहे या ना रहे अव्यवस्थाएं तो रहेंगी।वैसे पूछने वाला कोई नहीं है लेकिन फिर भी एक सवाल खड़ा है कि जब बीआरटीएस को हटाया जाना था तब उसकी साज सज्जा पर पैसे क्यों खर्च किए गए? 

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