जल जमाव से बचने के लिए सीमेंट कंक्रीट की पैबर हटाइए, यूरोप में जनता ही हटा रही शहरों का सीमेंट कांक्रीट

यूरोप में चल रही है शहरी क्षेत्र से सीमेंट कंक्रीट हटाने की मुहिम, ताकि शहर को भट्टी बनने से रोका जा सके 

इसके उलट हमारे यहां पर जोरों शोरों से कर रहे हैं शहरों का सीमेंट कंक्रीटाइजेशन

आपने देखा होगा कि लगभग हर भारतीय शहर की यही कहानी है कि थोड़ी सी बारिश हुई नहीं की शहर की सड़कों और गलियों में पानी ही पानी हो जाता है। आपको पता है इस पानी के पीछे किसकी जिम्मेदारी है? शायद आप कहेंगे कि आपके यहां की नगर निगम की।कुछ सीमा तक आप सही है लेकिन इसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है नगर निगम द्वारा शहर की सड़कों और फुटपाथों पर लगाए गए सीमेंट कंक्रीट के पेबर्स की।

शहर की सड़कों फुटपाथों और गलियों में जितना सीमेंट कंक्रीट का उपयोग कर लिया गया है उसका असर यह है कि बारिश का जो पानी जमीन के भीतर जाकर जमा होता था और जमीन को नई जिंदगी देता था, वह अब सड़कों पर जमा हो जाता है और जैसे-जैसे रास्ता मिलता है बहकर बाहर निकल जाता है। जबकि पहले जब यह सीमेंट कंक्रीट नहीं हुआ था उसे समय इस पानी का बड़ा हिस्सा जमीन के भीतर भी जाता था और उसे नया जीवन देता था।

नागरिक छुट्‌टी के समय इस तरह से सीमेंट के पैवर्स को हटाने की मुहिम चला रहे हैं।

इस सीमेंट कांक्रीटीकरण का दूसरा नुकसान यह हुआ है कि शहर की न केवल हरियाली खत्म हो रही है बल्कि यह सीमेंट कंक्रीट शहरों के तापमान में भी वृद्धि कर रहा है। इससे बचने के लिए ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक अब एक मोहिम चल रही है जिसे कहते हैं डी पेवर मुहिम यानी कि शहरों से सीमेंट कंक्रीट के पेवर्स को हटाना और उनकी जगह पेड़ पौधे लगाना । खास बात यह है कि यह मोहिम सरकार के स्तर पर नहीं चल रही है बल्कि इसे इन शहरों के बाशिंदे दे चला रहे हैं। 

यूरोप में यह मुहिम 2008 में शुरू हो गई थी लेकिन यह वह समय था जब भारत के शहरों का बेतहाशा सीमेंट कंक्रीटाईजेशन किया जा रहा था। इसके उलट भारत के शहरों में लगे हुए पेवर्स को हटाकर नए पेवर ब्लॉक लगाए जा रहे हैं। इसके अलावा कोई भी जगह ऐसी नहीं छोड़ी जा रही है कि धरती के भीतर थोड़ा भी पानी जा सके। यहां तक कि लोगों के जितने भूखंड होते हैं वह पूरे के पूरे भाग पर जमीन में ही सीमेंट कंक्रीट की स्लैब डाल लेते हैं, क्या इसकी भी छूट होनी चाहिए?  

पैवर्स हटाने की इस मुहिम की डीपैविंग या डीसीलिंग के नाम से भी जाना जाता है। इसमें जितना संभव हो सके कंक्रीट, डामर और अन्य प्रकार के कठोर भूनिर्माण को पौधों और मिट्टी से बदलने का काम हो रहा है। यह 2008 से ही चलन में है, जब पोर्टलैंड में डी पैवर्स समूह की स्थापना हुई थी। इसके समर्थकों का मानना है कि डीपाविंग से पानी जमीन में समा जाता है, जिससे भारी बारिश के समय बाढ़ कम आती है।  इससे शहरों की “स्पंजीनेस” में मदद मिलती है। इतना ही नहीं इन खाली स्थानों पर देशी पौधे लगाए जाते हैं जो शहरी स्थानों में वन्यजीवों को टिके रहने में मदद करते हैं , और पेड़ लगाकर आप छाया बढ़ा सकते हैं , जिससे निवासियों को हीटवेव से बचाया जा सकता है। शहर की सड़कों पर हरियाली लाने से लोगों के मानसिक स्वास्थ्य में भी सुधार हो सकता है ।

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पूरी दुनिया में जलवायु संकट गहरा रहा है। इसके यह मुहिम और जोर पकड़ रही है। कुछ शहर और यहां तक कि पूरे क्षेत्र अपनी जलवायु अनुकूलन रणनीतियों के हिस्से के रूप में डेपैविंग को अपनाना शुरू कर रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि अब समय आ गया है कि हम अपनी कंक्रीट की सड़कों को बड़े पैमाने पर तोड़ना शुरू करें ताकि प्रकृति के लिए बेहतर जगहें बनाई जा सकें। हैमिल्टन में बाढ़ के कारण सीवेज का पानी बहकर ओंटारियो झील में चला जाता है, जो शहर के पीने के पानी का स्रोत है।

यहां ग्रीन वेंचर और अन्य स्थानीय संगठन ऐसा होने की संभावना को कम करने के लिए तैयारी कर रहे हैं। यहां के निवासी कैसिमिरी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि वे डीपैविंग को एक महत्वपूर्ण रणनीति के रूप में देखते हैं। अध्ययनों से सामने आया है कि बगीचों में कांक्रीट जैसी अभेद्य सतहें शहरी क्षेत्रों में बाढ़ के जोखिम को बढ़ाती हैं। वहीं कैथरीन रोज़ का कहना है कि पोर्टलैंड में उनके समूह के प्रयासों का मतलब है कि हर साल लगभग 24.5 मिलियन गैलन वर्षा जल को तूफानी नालों में जाने से रोका जाता है। रोज का कहना है कि डीपैविंग धरती को आजाद करने जैसा है। उन्होंने हाल ही में 50 स्वयंसेवकों के साथ स्थानीय चर्च के मैदान से 18000 वर्ग फीट का कांक्रीट हटाया है।

ल्यूवेन, बेल्जियम के बैपटिस्ट व्लामिनक, जो ल्यूवेन के लाइफ पैक्ट जलवायु अनुकूलन परियोजना का चलाते हैं, ने गणना की है कि केवल 2023 में ही 6,800 वर्ग मीटर (73,000 वर्ग फीट) कठोर सतह को हटाने से 377,000 गैलन (1.7 मिलियन लीटर) पानी को जमीन में गया है।”जलवायु परिवर्तन के साथ, अधिक और तेज बारिश की की घटनाएं बढ़ रहीं हैं और इसलिए डिपाविंग एक आवश्यकता है।

इस मुहिम को चलाने वाले लोग मजदूर नहीं स्वयंसेवक हैं।

यूरोप में, कम से कम, कुछ नगर पालिकाओं ने डीपैविंग को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए, यू.के. में लंदन के निवासियों को अपने बगीचों को डीपैविंग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।बेल्जियम के शहर ल्यूवेन का कहना है कि वह बड़े पैमाने पर डीपैविंग या “ऑन्थर्डन” को अपना रहा है। स्पान्से क्रून का उपनगरीय जिला , जिसमें लगभग 550 लोग रहते हैं, शहर द्वारा डीपैविंग और रीनेचरिंग शुरू की गई है। इसके तहत आवासीय क्षेत्र से डामर की बड़ी मात्रा को हटाना और कारों को पैदल यात्रियों और साइकिल चालकों के साथ सड़क के एक ही हिस्से चलाना शामिल है।

भारत मे डी पैविंग में सरकारी मुश्किलें

विदेश में लोग बहुत जल्दी समझ गए हैं कि यदि शहरों को भट्‌टी बनने से रोकना है तो ये सीमेंट कांक्रीट हटाना पड़ेगा। इसके भारत में भी इस बार की गर्मी में शहरों में हरियाली की कमी महसूस की गई लेकिन फिर भी हमारे यहां डीपैविंग की मुहिम खतरे का काम है क्योंकि यहां पर ऐसा करने वालों पर नगर पालिका शासकीय कार्य में बाधा का केस दर्ज करा सकती है। सीमेंट कांक्रीटाईजेशन सरकार में बैठे लोगों की आमदनी का बड़ा साधन है इसके चलते इंदौर जैसे शहरों में पहले गली और फुटपाथों का सीमेंटीकरण करने के बाद गलियों के मुहानों पर गेट बनाए गए और अब चौराहे फिर से किले शक्ल में बनाए जा रहे हैं। इसका एक बुरा असर यह भी है कि इन बैसिर पैर के सरकारी कामों से सीमेंट महंगी हो रही है जिसकी कीमत आम जन अपना मकान बनाने में चुका है। फिलहाल उम्मीद ही की जा सकती है कि एक दिन हमारे यहां भी डीपैविंग का महत्व समझ कर शहरों को बिना काम के कांक्रीट से मुक्त किया जाएगा।

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