नवीन को मौत के बाद मिला और क्या सचिन के जाने का इंतजार है?
रविवार की सुबह सोशल मीडिया पर एक सुखद खबर मिली कि राऊ विधानसभा के विधायक मधु वर्मा ने पूर्व प्रचारक और भाजपा कार्यकर्ता स्वर्गीय नवीन कुवादे के परिवार के लिए मदद की पहल की और परिवार सम्मानजनक जीवन जी सके इसकी व्यवस्था की है। मधु वर्मा भारतीय जनता पार्टी की उस पीढ़ी से आते हैं जहां पर कार्यकर्ता अपने परिवार से ज्यादा महत्वपूर्ण हुआ करता था। उसका दुख साझा दुख हुआ करता था और उसकी समस्याएं नेता को विचलित कर देती थीं। तब से लेकर सतत सत्ता में बने रहने तक भाजपा ने लंबा रास्ता तय किया है, अब सब कुछ वर्चुअल है। इवेंट बाजी चरम पर है और कार्यकर्ता हाशिए पर। बड़ी और सतत मिलने वाली चुनावी जीत के बाद कार्यकर्ता का हाशिए पर जाना उसकी नियति है!

बात नवीन की शुरू हुई है तो मेरा नवीन से परिचय तब का है जबकि वे पूर्णकालिक हुआ करते थे और कार्यालय प्रभारी थे। घर वापसी से भाजपा में जाने तक भी संपर्क बना रहा। पिछले कुछ समय से संपर्क केवल हाल-चाल पूछने तक सीमित हो गया था। भाजपा में जाने के बाद मुझे इस बात की जानकारी मिली थी कि उन्होंने पार्षद के टिकट के लिए प्रयास किया था और टिकट न मिलने के बाद उनके भीतर कुछ निराशा भी आई थी लेकिन इसको एक तरफ रखकर पार्टी के हर अभियान में वो दिखाई देते थे। शारीरिक रूप से अस्वस्थ होने के पहले आदमी मानसिक रूप से अस्वस्थ होता है। मुझे लगता है नवीन जी के साथ भी यही हुआ।
जिस समय में संगठन में नवीन कुवादे के साथ मिला उसी समय मैं एक और कार्यकर्ता से मिला जिसका नाम सचिन बनोधा है। बेहद कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने के बाद में भी सचिन ने जो काम किया वह मन से किया। संघ कार्यकर्ता से लेकर भारतीय जनता युवा मोर्चा की प्रदेश कार्यसमिति सदस्य होने तक कम सफर उसने इसी हिम्मत के साथ पूरा किया।13 साल पहले लकवा की चपेट में आने के बाद सचिन की जिंदगी सब कुछ बदल गई है। सीधा हाथ अब भी काम नहीं करता। बोलने में हकलाहट बढ़ गई है। ऐसे में कोई व्यवसाय या नौकरी कर पाएंगे इसकी संभावना न के बराबर है।

घर में 70 बरस की मां है और रहने के नाम पर एक झोपड़ी जो 10 बाय 10 से ज्यादा कि नहीं है। इन सब के बीच में एक नारा है सबका साथ सबका विकास का? सचिन को खुद नहीं पता कि जीवन किधर जा रहा है और आगे क्या होगा? विधानसभा चुनाव के पहले उसके हाल को लेकर एक खबर खुलासा में प्रकाशित हुई थी उसके बाद क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के प्रतिनिधि वहां पहुंचे फौरी तौर पर मदद पहुंचाई लेकिन चुनाव बीत जाने के बाद सचिन ने अपने हाल पर छोड़ दिया गया। कुछ ही समय पहले उसके ऑपरेशन भी हुए हैं।
पत्रकार होने के नाते मुझे इस बात की पूरी जानकारी है कि नेताओं के पत्ते किस तरह से आउटसोर्स कंपनियों के पैरोल पर बिना काम किया पैसा पा रहे हैं। लेकिन सचिन के बारे में सोचने की फुर्सत किसी को नहीं है। इवेंट बाजी के नाम पर लाखों करोड़ों रुपए उड़ा देने वाले लोग इतनी संवेदनशीलता भी नहीं दिखा पाए कि अपने ही किसी पुराने साथी के आज भी का कोई बंदोबस्त कर सकें? कई लोगों के बड़े-बड़े काम चुटकियों में हो रहे हैं तो कईं छोटे-छोटे लोगों के जीवन जीने के लिए जरूरी काम भी लटके हुए हैं और ऊपर से दावा है सुशासन का?
विश्व गुरु बनाने की प्रक्रिया में किसी को फुर्सत ही नहीं है कि संवेदनशीलता को भी जरूरी समझे? इसके बीच मौज तो डी पी सिंह जैसों की है। जब कांग्रेस राज था तो उनके खाते में तीन बार कुलपति बने और जब भाजपा का राज आया तो कुलपति तो छोड़िए सीधे यूजीसी चेयरमैन बन गए।
नवीन के मामले के बाद में मुझे ऐसा लगता है कि शायद सचिन के बारे में भी तब सोचा जाएगा जब वह नहीं रहेगा। शायद सचिन का इंतजार सचिन के जाने के बाद ही पूरा हो क्योंकि जिंदा चीजों को सहजने से वह इमोशन नहीं आता जो आपकी “ मदद” को ब्लॉकबस्टर बना सके और अगर प्रचार ही नहीं मिला तो फिर मदद का क्या सिला?