एक प्लॉट खरीदने जाइए, समझ जाएंगे अयोध्या के भूमि के मामले को
बहुत चुनौतिपूर्ण है एक अविवादित संपत्ति को खरीदना
सुचेन्द्र मिश्रा
पिछली बार के लॉकडाउन के बाद मैने सोचा कि मुझे एक भूखंड खरीदना चाहिए। मेरा बजट 18 लाख रुपए का था और मेरा मानना था कि मुझे इतनी राशि में कम से कम से एक हजार वर्ग फुट का भूखंड खरीदना है। शहर में रहता हूं तो इतना समझता हूं कि इस राशि में शहरीसीमा के बाहर ही भूखंड ले सकूंगा। मैने बायपास के बाहर स्थित टाउनशिप्स में भूखंड की तलाश शुरू की। एक टाउनशिप में लगा कि ये मेरे अनुकूल है। वहां 18 लाख रुपए के बजट में 1100 वर्ग फुट का प्लॉट मिल रहा था। हालांकि इसमें रजिस्ट्री का पैसा अलग से देना था।
मैने टाउनशिप के मैनेजर से पूछा कि रजिस्ट्री का कितना पैसा लगेगा? तो उसने बताया कि इस भूखंड की गाइडलाइन के हिसाब से कीमत साढ़े छह लाख रुपए है। आपको इस मूल्य पर ही पंजीयन शुल्क देना होगा। उसने बताया कि आपको 75 से 80 हजार के बीच रजिस्ट्री का खर्च देना होगा। इसके साथ ही उसने एक बात और कही कि आपको केवल साढ़े छह लाख रूपए ही बैंक या चेक के जरिए देना है। शेष साढ़े ग्यारह लाख रुपए आपको नकद देना होंगे।
मैने कहा कि मेरे सारे पैसे बैंक में हैं और मैं कैश कहां से लाऊं? टाउनशिप का प्रबंधक बोला कि यदि आप सारे पैसे बैंक से देंगे तो आपकी रजिस्ट्री 18 लाख रुपए की कीमत के हिसाब से होगी और वो आदमी इसे नहीं बेचेगा जिसका ये प्लॉट है। कैश पेमेंट करने से तो आपका रजिस्ट्री का पैसा भी बच रहा है। मैं देख रहा था कि मेरी साढ़े ग्यारह लाख रुपए की सफेद कमाई काली हो रही है। साथ ही ये भी पता चला कि नोटबंदी असर जानने से पहले इस ब्लैक और व्हाइट का जानना चाहिए।
मुझे पता चला कि भूमि की खरीदी बिक्री के हर सौदे में इसी तरह से व्यवहार होता है। आप पूछेंगे कि इस बात को मैं आपको क्यों बता रहा हूं, तो इसका उत्तर ये है कि हाल ही में श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट द्वारा खरीदी गई भूमि चर्चा में है। मेरे मामले से इसका कोई संबंध नहीं हैं लेकिन अपने मामले से मैने इतना अवश्य जाना है कि जिस तरह से इस भूमि की गाइडलाइन वैल्यू लगभग साढ़े पांच करोड़ बताई जा रही है। यदि इस भूमि को श्री राम जन्मभूमि ट्रस्ट के अलावा और किसी ने खरीदा होता तो विश्वास कीजिए इसके लिए केवल गाईडलाइन मूल्य यानी कि केवल साढ़े पांच करोड़ रुपए की बैंक के माध्यम से चुकाए गए होते शेष राशि का भुगतान नकद होता।
इसी से समझिए कि इस खरीदी में भ्रष्टाचार की गुंजाइश कितनी है? इस सौदे में एक भी पैसा ब्लैक मनी नहीं हुआ है। प्लॉट खरीदने के की प्रक्रिया के दौरान एक और बात समझ में आई। जमीन के व्यापार में लगे लोग जमीन बेचते समय ज्यादा से ज्यादा मूल्य लेने का प्रयास करते हैं। हाल ये है कि इसके लिए ये लोग झूठ बोलने से भी पीछे नहीं हटते हैं। मुझे भी विक्रेता ने कम से कम आधा दर्जन स्थानों पर बताया कि इस कॉलोनी के पास मेट्रो स्टेशन आने वाला है इसके चलते यहां भाव तेजी से बढ़ रहे हैं? जबकि पत्रकार होने के नाते मुझे पता है कि शहर में कहां-कहां मेट्रो स्टेशन बनने वाले हैं। इनके द्वारा यहां सड़क निकलने वाली है या यहां पर कोई अस्पताल आ रहा है जैसी मनगढ़ंत जानकारियां देना बहुत सामान्य है।
इतना ही नहीं एक बार मेरे जमीन के व्यापार में लगे मेरे एक मित्र का फोन आया वो जानना चाहते थे कि इंदौर एदलाबाद रोड का काम कब से शुरू होगा। मैने कहा कि मुझे जानकारी नहीं आप बताइये क्या काम है? मित्र ने कहा कि यदि सही जानकारी मिल जाए तो वहां जमीन खरीद लें। अभी सस्ती मिल जाएगी। बाद में तो बहुत तेजी आ जाएगी और लोग बेचेंगे भी नहीं। यह चतुराई तो जमीन का हर व्यापारी दिखाता है। ऐसे में सोचिए कि क्या अयोध्या और इसके आसपास जमीन का कारोबार करने वाले लोग क्या इससे अलग होंगे?
जब पूरा देश जानता है कि आयोध्या को विश्वस्तरीय तीर्थ के रूप में विकसित किए जाने की योजना है तो क्या वहां के जमीन का कारोबार करने वाले हाथ पर हाथ धरे बैठे होंगे? श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र कोई व्यापारी नहीं है और न चंपत राय भूमि के व्यापार में लगे हुए हैं, जो कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पहले ही मंदिर क्षेत्र के लिए जमीनों के सौदे शुरू कर देते।
एक पत्रकार के रूप में मैने व्यक्तिगत रूप से ऐसी कईं शिकायतें देखी हैं जिनमें कि किसान से बयाना देकर शेष राशि तीन या पांच साल में भुगतान करने का एग्रीमेंट किया गया। बाद में जब एग्रीमेंट की अवधि में ही कोई अच्छी कीमत देने वाला खरीददार मिल गया तो जमीन की रजिस्ट्री उसके नाम करा दी और बीच में ही बिना रिकॉर्ड पर आए मुनाफा कमाकर निकल गए। क्या श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ऐसा कर सकता था? यदि वो ऐसा करते तो उन पर गंभीर आरोप लगते। ट्रस्ट और उससे जुड़े व्यक्ति जिस काम को कर रहे हैं। उस काम में पारदर्शिता ही सबकुछ है। उनके सामने वर्षों के संघर्ष की कहानी भी है और वे स्वयं इसके हिस्से भी रहे हैं।
सोचिए यदि ट्रस्ट सीधे कुसुम और हरीश पाठक से जमीन की खरीदी के लिए संपर्क करता और उन्हें रवि मोहन तिवारी और सुल्तान अंसारी के साथ किए एग्रीमेंट से बाहर आने के लिए मना लेता तो संभव था कि जमीन सस्ती मिल जाती लेकिन उस स्थिति में यह मामला कोर्ट चला जाता तो कितने साल का इंतजार करना पड़ता और क्या रामलला के भव्य मंदिर के लिए योजना बनाई गई है वो समय पर पूरी होती? यदि इस मामले में अधिकारी बीच में होते तो मैं यह मान भी सकता था कि उनका इस मंदिर से सामान्य सा लगाव होगा लेकिन उन लोगों के बारे में यह नहीं माना जा सकता जिनकी जीवन यात्रा ही यह मंदिर है, जिनके लिए राम ही रक्त हैं, राम ही श्वास हैं।
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