प्रिया पाठक से ज्यादा नंबर लाकर भी डिप्टी कलेक्टर नहीं बन सकेंगे 13 प्रतिशत में आने वाले अभ्यर्थी
जातिगत राजनीति का खेल बना युवाओं की मुसीबत
राजनीतिक दलों की जातिवादी राजनीति की कारस्तानी के चलते 87 और 13 प्रतिशत के फेर में फंसी राज्य सेवा परीक्षा में अजीब तरह की स्थिति बन रही है। हाल ये है कि 13 प्रतिशत के फॉर्मूले के चलते परीक्षा में शामिल किए गए अनारक्षित (सामान्य वर्ग) या ओबीसी के अभ्यर्थी के भविष्य का निर्धारण भले ही न्यायालय के निर्णय से होगा लेकिन आयोग ने उनके लिए यह अभी से तय कर दिया है कि उनके अंक भले ही टॉपर से ज्यादा आएं उन्हें केवल 87 प्रतिशत के चयन के बाद बची हुई पोस्ट ही मिलेगी। इस तरह से इन लोगों को डिप्टी कलेक्टर और डीएसपी जैसी पोस्ट तो न्यायालय के निर्णय के बाद भी नहीं मिलेगी। इन्हें तृतीय श्रेणी में आने वाले पदों से ही संतुष्ट होना पड़ेगा। क्या ये इन अभ्यर्थियों के साथ अन्याय नहीं होगा।
जातिवादी राजनीति ने बिहार को 50 साल में जितना नुकसान पहुंचाया था, उसने ज्यादा पांच साल में ही मध्य प्रदेश में पहुंचा दिया। लाखों शिक्षित बेरोजगार युवा राजनीतिक दलों की ओबीसी पॉलिटिक्स के शिकार हो गए हैं। हाल ही में आया 2019 की राज्यसेवा परीक्षा का प्राविधिक परिणाम इसका प्रमाण है। 87 और 13 के फेर में लाखों युवाओं को उलझा कर सरकार ने इनके पांच साल तो खराब कर दिए हैं और आगे भी इनका क्या होगा कोई नहीं बता सकता?
इस बारे में एमपीपीएससी के ओएसडी रवींद्र पंचभाई का कहना है कि इन लोगों के लिए आयोग पर ताला नहीं डाल सकते । इसके चलते 87 प्रतिशत को नियुक्ति दी जा रही है। इस बारे में कोर्ट के निर्देश का पालन किया जा रहा है। 13 प्रतिशत अभ्यर्थी चाहे वे सामान्य वर्ग के हों या ओबीसी के, जब भी कोर्ट से ओबीसी आरक्षण का निर्णय करेगी उस समय भी यदि इन 13 प्रतिशत छात्रों के अंक टॉपर से ज्यादा हो फिर भी उन्हें 87 प्रतिशत की नियुक्ति के बाद बची हुई सीटें ही मिलेंगी। यानी कि वे डिप्टी कलेक्टर और डीएसपी तो नहीं बन सकेंगे। क्येया इनके साथ अन्याय नहीं होगा? यह पूछे जाने पर उनका कहना है कि आयोग निर्णय की प्रतीक्षा में अपने काम काज पर ताला डालकर तो नहीं बैठ सकता?
आयोग का कहना है कि ये लोग 13 प्रतिशत के फॉर्मूले के चलते ही प्रारंभिक परीक्षा में चुने गए हैं। ये बात 13 प्रतिशत ओबीसी के अभ्यर्थियों के लिए सही है लेकिन अनारक्षित वर्ग से आने वाले 13 प्रतिशत लोगों के लिए ये सही नहीं है क्योंकि वे तो 27 ओबीसी के राजनीतिक दाव के न आने के सूरत में वैसे ही मुख्य परीक्षा के लिए चुन लिए जाते। ऐसे में एक राजनीतिक दाव के चलते उन्हें मैरिट के बावजूद उन्हें टॉप पोस्ट नहीं मिलेगी। प्रारंभिक परीक्षा के अंक तो वैसे भी अंतिम चयन में हिसाब में नहीं लिए जाते हैं। यानी कि इन 13 अभ्यर्थियों के लिए तो इस रात की सुबह नहीं है?
चुनावी स्टंट में फंस गया भविष्य
2018 के चुनाव के पहले प्रदेश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनाव के पहले ओबीसी का मंत्र जपना शुरू किया था। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही मिलकर ओबीसी को ज्यादा से ज्यादा लाभ पहुंचाने की जुगाली में लगे हुए थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने खुद को बड़ा ओबीसीवादी साबित करने के चक्कर में 2020 में शासकीय सेवाओं में आरक्षण की सीमा 14 से बढ़ा कर 27% कर दी। बस तब से 27 तो छोड़िए 14% ओबीसी को भी अपने आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाया। प्रदेश की नौकरियों में तब से नियुक्तियां अटक गई जिन्हें बाद में 87% और 13% के फार्मूले में लाकर रिजल्ट जारी करने की कवायद तो हुई लेकिन नियुक्तियां ना के बराबर हो सकीं। अब हाल ये है कि 87 और 13 फेर में सारी राज्य सेवा परीक्षाएं इसी तरह से उलझेंगी जब तक कि इस मामले पर अंतिम निर्णय नहीं आ जाता।
ऐसे एमपीपीएससी बना राजनीति का टूल
राज्य की प्रशासनिक सेवा में भर्ती के लिए मध्य प्रदेश लोकसेवा आयोग का गठन किया गया था और यह माना गया था कि आयोग सरकार से स्वतंत्र निष्पक्ष रूप से काम करेगा लेकिन आयोग सरकार का पिछलग्गू बनकर रह गया।
मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग ने 571 पदों के लिए 2019 में राज्य सेवा परीक्षा के लिए विज्ञापन जारी किया था। 12 जनवरी 2020 को इसकी प्रारंभिक परीक्षा भी संपन्न हो गई। इसमें लगभग 3.44 लाख अभ्यर्थी शामिल हुए। फरवरी 2020 में कमलनाथ सरकार ने ओबीसी आरक्षण की सीमा 14 से बड़ा कर 27% कर दी। यहां पर आयोग सरकार का टूल बन गया और प्रारंभिक परीक्षा हो जाने के बाद उसने बैक डेट से 2019 के राज्य सेवा परीक्षा में 27% के हिसाब से आरक्षण की व्यवस्था कर दी। यदि आयोग चाहता तो कम से कम 2019 की राज्य सेवा परीक्षा में यह कहकर कि इसकी प्रारंभिक परीक्षा संपन्न हो जाने का हवाला देकर कम से कम 2019 की परीक्षा को तो इस उलझन से बचा सकता था।
यह मामला अभी कोर्ट में लंबित है। जब युवाओं ने इस स्थिति को लेकर बेचैनी दिखाई और उन्होंने विरोध शुरू किया तब सरकार ने 87 और 13 का फार्मूला पेश किया। नियमानुसार पहले जारी किसी भी नियुक्ति में इस तरह का संशोधन संभव नहीं है। लेकिन एमपीपीएससी ने नियम कायदे दरकिनार रख दिए।
87 और 13 का फॉर्मूला पीएससी में फिट नहीं
उन परीक्षाओं में 87 और 13 प्रतिशत का फार्मूला अपनाया जा सकता है जहां पर की केवल एक परीक्षा के माध्यम से एक ही प्नकार के पदों पर नियुक्ति होती हो लेकिन राज्य सेवा परीक्षा में प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा के साथ-साथ साक्षात्कार भी होता है तथा यहां पर एक साथ अनेक पदों पर नियुक्ति होती है। साथ ही प्रारंभिक परीक्षा के अंक मुख्य परीक्षा में भी नहीं जोड़े जा सकते साथ ही यहां पर अंतिम चयन में पद का वितरण अंकों के आधार पर होता है इसके चलते जब तक कि इन 13 प्रतिशत अभ्यर्थियों के बारे में कोई निर्णय होता तब तक शेष 87 प्रतिशत को नियुक्ति नहीं दे सकते क्योंकि यदि इन 13 प्रतिशत में से किसी के अंक टॉपर से ज्यादा आ गए तो क्या होगा?
ऐसी स्थिति में पूरी ही प्राविधिक सूची गड़बड़ा सकती है। लेकिन आयोग ने इसका रास्ता यह निकाला है कि वो शेष 13 प्रतिशत लोगों के लिए 87 प्रतिशत के चयन के बाद बची हुई पोस्ट ही रखेगा। क्या ये इन 13 प्रतिशत अभ्यर्थियों के साथ अन्याय नहीं होगा?
फिर विवादित मेंस करा रहा आयोग
फिलहाल जनवरी के दूसरे सप्ताह में राज्य सेवा मुख्य परीक्षा 2022 का आयोजन किया जा रहा है। इस मामले में भी दो प्रश्नों के गलत उत्तर को लेकर परीक्षार्थी कोर्ट गए हुए हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और संभव है कि जनवरी के पहले सप्ताह में इसकी सुनवाई भी हो, ऐसे में यदि सर्वोच्च न्यायालय से छात्रों के पक्ष में कोई आदेश आता है तो आयोग को इन छात्रों को परीक्षा में सम्मिलित करना पड़ेगा। ऐसे में फिर एक नई परेशानी खड़ा हो जाएगी जैसी कि 2019 की राज्य सेवा मुख्य परीक्षा में हुई थी।
दो अलग-अलग मुख्य परीक्षाएं होने के चलते आयोग को नॉर्मलाइजेशन करना पड़ा जो कि आयोग के नियमों में ही नहीं आता। यह माना जा सकता है कि 2019 की राज्य सेवा परीक्षा के मामले को सुलझने में समय लग सकता है लेकिन दो प्रश्नों के गलत होने के मामले में सुलझने में इतना समय नहीं लगेगा ऐसे में आयोग को 2022 की राज्यसेवा मुख्य परीक्षा इतनी जलदी कराने की जरुरत क्यों हैं ये समझ से परे है। जबकि हाल ये है कि 2020 के चयनित अभ्यर्थियों को भी अभी तक नियुक्ति नहीं मिली है। क्या ये ठीक नहीं होगा कि आयोग कम से कम इस परीक्षा के मामले को कम से कम सृुप्रीम कोर्ट की पहली सुनवाई तक को स्थगित रखता?
हमारे प्रयास जारी है। जो हम कर सकते थे हमने किया है। इस मामले का इससे बेहतर समाधान हमें दिखाई नहीं देता है।
रविंद्र पंचभाई, ओएसडी,
मप्र लोकसेवा आयोग।