एक शब्द की हेड़िंग वाला वो लेख जिसने पाकिस्तान का विभाजन कर दिया
लिखने वाला पत्रकार भागा था जान बचाकर
पत्रकार और पत्रकारिता क्या कर सकती है। ये लेख इसका एक अप्रतिम उदाहरण है। यह लेख एक ऐसे पत्रकार ने लिखा था जो कि पाकिस्तानी था लेकिन काम ब्रिटिश अखबार संडे मेल के लिए करता था। इस पत्रकार का नाम था एंथनी मस्केरेन्हास। मस्केरेन्हास को पता था कि लेख के छपने के बाद उनका जिंदा रहना मुश्किल होगा। इसके चलते वे इसे छापने के पहले ही पाकिस्तान से चले गए और उनके संपादक ने लेख छापने के पहले ये सुनिश्चित किया कि मस्केरेन्हास का परिवार भी पाकिस्तान से सुरक्षित निकाल लिया जाए।
इस रिपोर्ट और इसके रिपोर्टर को याद किया है बीबीसी के पत्रकार मार्क डमेट ने। आप भी इसे पढ़िए।
ब्रिटेन के संडे टाइम्स में 13 जून 1971 को छपे एक लेख ने बांग्लादेश के विद्रोह के दौरान पाकिस्तान की बर्बर कार्रवाई की तस्वीर बयाँ कर दी. उस लेख ने रिपोर्टर के परिवार को छिपने के लिए मजबूर किया और साथ ही उसने बदल दिया इतिहास भी.
”भाग्य ने अब्दुल बारी का साथ छोड़ दिया था. पूर्वी बंगाल के हज़ारों लोगो की तरह उसने भी एक ग़लती कर दी थी- एक बड़ी ग़लती- और वो ग़लती थी पाकिस्तानी ग़श्ती दल के सामने दौड़ने की. वह सिर्फ़ 24 साल का था, उसके इर्द-गिर्द सैनिक खड़े थे. वह बुरी तरह काँप रहा था क्योंकि उसे पता था कि उसे गोली मारी जाने वाली है.”
पिछली शताब्दी में दक्षिण एशिया में पत्रकारिता के सर्वाधिक प्रभावशाली लेखों में से एक कुछ इसी वर्णन के साथ शुरू हुआ था.
एंथनी मैस्करैन्हास एक पाकिस्तानी रिपोर्टर थे और ब्रिटेन के संडे टाइम्स के लिए लिखते थे. उन्होंने ही पहली बार दुनिया को बताया कि किस तरह पाकिस्तानी सेना ने अपने पूर्वी प्रांत में 1971 में विद्रोह को दबाने की हिंसक और बर्बर कोशिश की.
इसमें कोई शक नहीं कि मैस्करैन्हास के उस रिपोर्ट के बाद ही इस संघर्ष को समाप्त करने की शुरुआत हुई. इसी ने दुनिया भर में पाकिस्तानी कार्रवाई की निंदा करवाई और इसी के बाद भारत ने निर्णायक भूमिका अदा करने का फ़ैसला किया.
इंदिरा गाँधी
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उस समय संडे टाइम्स के संपादक हैरल्ड इवांस को बताया था कि उस लेख ने उन्हें इतनी गहराई तक सदमा पहुँचाया था कि उन्होंने ‘निजी कूटनीतिक अभियान के तहत यूरोपीय नेताओं से बात की, रूस से चर्चा की जिससे भारतीय हमले की भूमिका तैयार की जा सके.’
ऐसा नहीं है कि मैस्करैन्हास यही करना चाहते थे. इवांस ने अपने संस्मरणों में लिखा है, “वह एक अच्छे रिपोर्टर थे जो ईमानदारी से अपना काम कर रहा था.”
इसमें भी कोई शक नहीं कि वह एक साहसी पत्रकार थे, उस समय पाकिस्तान पर सैनिक शासन था और उन्हें पता था कि लेख छपने से पहले उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ेगा. ये काम भी उस समय आसान नहीं था.
मैस्करैन्हास की विधवा इवोन याद करते हुए बताती हैं, “उनकी माँ ने हमेशा उनसे कहा था कि उन्हें उठकर सच बोलना चाहिए. वह मुझे बताते थे कि मेरे सामने पहाड़ भी खड़ा कर दो तो मैं उस पर चढ़ जाऊँगा, वह कभी डरते नहीं थे.”
पूर्वी पाकिस्तान में जब मार्च 1971 में युद्ध शुरू हुआ तो मैस्करैन्हास कराची के एक प्रतिष्ठित पत्रकार थे और देश के सत्तारूढ़ लोगों के बीच उनकी अच्छी पैठ भी थी.
उस समय संघर्ष पूर्वी पाकिस्तानी पार्टी (आज की अवामी लीग) की चुनाव में जीत के बाद शुरू हुआ था जो उस क्षेत्र के लिए ज़्यादा स्वायत्तता की माँग कर रही थी.
एक ओर राजनीतिक दल और सेना नई सरकार के गठन पर चर्चा कर रहे थे तो दूसरी ओर कई बंगाली इस बात से आश्वस्त थे कि पश्चिमी पाकिस्तान जानबूझकर उनकी आकांक्षाओं को दबाने की कोशिश कर रहा है.
पत्रकारों का दौरा
उस समय हुए कई युद्धापराधों में से एक के तहत सैनिकों ने ढाका विश्वविद्यालय पर हमला किया, वहाँ छात्रों और प्रोफ़ेसरों को लाइन से खड़ा करके उन्हें गोली मार दी गई.
इसके बाद उनका आतंक का अभियान गाँवों की ओर गया जहाँ विद्रोह कर चुके सैनिकों के साथ उनका संघर्ष हुआ.
शुरुआत में सेना ने सोचा कि कुछ पाकिस्तानी पत्रकारों को वहाँ बुलाया जाए और दिखाया जाए कि उन्होंने कैसे सफलतापूर्वक ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ को निबटा दिया है.
विदेशी पत्रकार तो पहले ही देश से निकाले जा चुके थे और पाकिस्तान ये भी दिखाना चाहता था कि दूसरा पक्ष किस तरह के अत्याचार कर रहा है. अवामी लीग समर्थकों पर आरोप था कि उन्होंने ऐसे दसियों हज़ार आम लोगों को मार दिया था जिनकी वफ़ादारी पर उन्हें शक था. वैसे इस युद्धापराध से वे आज भी इनकार करते हैं.
उस समय मैस्करैन्हास सहित आठ पत्रकारों को 10 दिन की प्रांत की यात्रा कराई गई. उसके बाद जब वे घर लौटे तो उनमें से सात ने तो अनुशासित होकर वही लिखा जो उनसे लिखने के लिए कहा गया था. मगर एक ने वो लिखने से इनकार कर दिया.
इवोन मैस्करैन्हास याद करती हैं कि वह वापसी में कितने सकते में थे, “मैंने अपने पति को उस हालत में पहले कभी नहीं देखा था. वह बिल्कुल आश्चर्यचकित थे, तनाव में थे और काफ़ी भावुक भी. उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने जो भी देखा, उसके बारे में वह लिख नहीं पाएँगे बल्कि इसके बाद वो कभी कुछ नहीं लिख पाएँगे.”
निश्चय ही वो जो कुछ लिखना चाह रहे थे वो पाकिस्तान में संभव नहीं था. सारे अख़बारों के लेख पहले सेना के पास जाते थे इसलिए मैस्करैन्हास ने पत्नि को बताया कि अगर उन्होंने ऐसा कुछ लिखा तो उन्हें भी गोली मार दी जाएगी.
पाकिस्तान से बचकर निकले
उन्होंने बहाना बनाया कि वह अपनी बीमार बहन को देखने लंदन जा रहे हैं और वहाँ पहुँचकर वह सीधे संडे टाइम्स के संपादक के दफ़्तर पहुँचे.
इवांस आज भी उस बैठक को याद करते हैं, “देखने में एक सैनिक की तरह, मूँछों वाला मगर भावुक आँखें.”
इवांस ने संस्मरण में लिखा है, “वह मार्च में बंगाली अत्याचारों से सकते में थे मगर उन्होंने बताया कि उसके बाद जो पाकिस्तानी सेना ने किया वो और बुरा था और कहीं बड़े पैमाने पर था.”
मैस्करैन्हास ने उन्हें बताया कि उन्होंने बड़े पैमाने पर और सुनियोजित ढंग से हो रही हत्याएँ देखी हैं साथ ही उन्होंने सेना के अधिकारियों को ये भी कहते हुए सुना कि हत्या ही ‘अंतिम उपाय’ है.
इवांस ने वादा किया कि वो लेख संडे टाइम्स में छपेगा मगर उससे पहले इवोन और उनके बच्चों को सकुशल कराची से निकालना था.
ये तय किया गया था कि जब मैस्करैन्हास ये टेलीग्राम भेजेंगे कि ‘ऐन का ऑपरेशन सफल रहा’ तब वे कराची से सामान बाँधना शुरू कर देंगे.
इवोन को याद है कि उन्हें संदेश सुबह तीन बजे मिला था, “टेलीग्राम वाले ने सुब- दरवाज़ा खटखटाया. मैंने अपने बच्चों को उठाया और जब मैंने संदेश पढ़ा तो पता चला कि ओह अब तो हमें लंदन जाना है. ये काफ़ी डरावना था. मुझे सब कुछ पीछे छोड़कर जाना था.”
इवोन बताती हैं, ”हम सब एक-एक सूटकेस ही ले पाए, हम रो रहे थे और हम पर मुर्दनी छाई थी.”
मगर किसी को किसी तरह का शक नहीं हो इसलिए पहले ये तय किया गया था कि मैस्करैन्हास पाकिस्तान लौटेंगे और तभी उनका परिवार वहाँ से निकलेगा.
मगर पाकिस्तानियों को उस समय एक ही विदेश यात्रा की अनुमति थी. इसलिए उन्हें देश से निकलने का उपाय ख़ुद करना पड़ा और वह ज़मीनी रास्ते से अफ़ग़ानिस्तान पहुँचे.
लेख से तहलका
जिस दिन पूरा परिवार एक साथ लंदन में मिला उसके अगले दिन संडे टाइम्स ने वो लेख छापा जिसका शीर्षक था, ‘जीनोसाइड’ यानी जनसंहार. मैस्करैन्हास का वो लेख काफ़ी प्रभावशाली था क्योंकि पाकिस्तान के जिन अधिकारियों के साथ उन्होंने समय बिताया था वो उन पर काफ़ी विश्वास करते थे.
”मैंने हत्या और आगज़नी का बर्बर अभियान देखा है. सैनिक टुकड़ियाँ विद्रोहियों को खदेड़ने के बाद नगरों और गाँवों में जाकर सामूहिक हत्या कर रही हैं. मैंने देखा है कि पूरे के पूरे गाँव पर दंडात्मक कार्रवाई हो रही है. इसके बाद ऑफ़िसर्स मेस में रात में मैंने सुना कि ऐसे अफ़सर भी जो वैसे तो बहादुर और सम्मानजनक हैं वे भी दिन भर हुई हत्याओं की चर्चा कर रह हैं. तुमने कितने मारे- इसके जवाब में भी मेरे ज़ेहन में खुदे हुए हैं.”
मैस्करैन्हास का लेख पाकिस्तान के नज़रिए से एक बहुत बड़ा धोखा था और उन पर दुश्मन का एजेंट होने के आरोप लगे. पाकिस्तान अब भी इस बात से इनकार करता है कि मैस्करैन्हास ने जिन घटनाओं का ज़िक्र किया है उसके सैनिकों ने कभी ऐसा किया. बल्कि पाकिस्तान को इसे भारत का दुष्प्रचार कहता है.
वैसे देश छोड़ने के बावजूद मैस्करैन्हास का देश में संपर्क बना रहा और उन्होंने 1979 में सबसे पहले बताया था कि पाकिस्तान ने परमाणु हथियार विकसित कर लिए हैं.
वैसे बांग्लादेश में उन्हें काफ़ी प्यार से याद किया जाता है और उनका वो लेख अब भी देश के लिबरेशन वॉर म्यूज़ियम में लगा है.
अब उनका परिवार एक नए और ठंडे देश में बस गया था. इवोन उसे याद करते हुए बताती हैं, “लोग लंदन में काफ़ी गंभीर थे और हमसे तो कोई बात ही नहीं करता था. हम कराची में हँसते-मुस्कुराते रहते थे मगर उससे यहाँ सब अलग था. वैसे हमें उसका कोई अफ़सोस नहीं रहा.”
बीबीसी से साभार