20th April 2024

क्या प्रिंसीपल को जलाने के लिए केवल छात्र जिम्मेदार है?

इंदौर में एक कॉलेज प्रिंसीपल को छात्र द्वारा पट्रोल छिड़ककर आग लगाने वाली घटना गुरू शिष्य के संबंधों की ऐतिहासिक विरासत वाले देश में हैरान करने वाली है। प्रिंसीपल के साथ पूरी सहानुभूति है साथ ही उनके शीघ्र स्वास्थ्य की कामना भी। बताया जा रहा है कि छात्र पहले भी उसी निजी कॉलेज के प्राध्यापक पर हमला कर चुका है और उस मामले में जेल भी जा चुका है। दोनों घटनाओं में उसे कानून के अनुसार सजा मिलना चाहिए। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन क्या पूरे मामले में केवल वही जि्म्मेदार है इस बात की पड़ताल भविष्य के सबक के लिए आवश्यक है।

निजी शैक्षणिक संस्थानों के लिए छात्र केवल कमाई के साधन हैं। ये संस्थान संगठित भी हैं। इसके चलते छात्रों के साथ इनकी मनमानी का इतिहास नया नहीं हैं। वहीं छात्र राजनीति के हाशिए पर होने से छात्र बिखरे हुए हैं। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से यह देखने में आया है कि निजी कॉलेज छात्रों के मूल प्रमाण पत्र अपने पास बंधक रख लेते हैं और जब तक उसे वापस नहीं करते तब तक कि छात्र से एक-एक पैसे की वसूली न हो जाए। इतना ही नहीं कईं मामलों में छात्रों को परेशान भी किया जाता है। खास बात ये है कि ये सारे कारनामें मालिक की ओर शिक्षक करने को मजबूर होते हैं।

हाल ये है कि यदि कोई छात्र किसी कॉलेज में प्रवेश ले ले तो उसके ओरिजनल दस्तावेज जमा कर लिए जाते हैं। इसका उद्देश्य केवल इतना है कि छात्र कॉ़लज छोड़कर न जाए और जाए भी तो पूरी फीस देकर जाए। कईं बार तो ऐसा देखने में भी आता है कि छात्र की कहीं सरकारी नौकरी लग गई या किसी बड़े संस्थान में उसका एडमिशन हो गया तो भी उसके दस्तावेज देने के लिए उससे पैसे मांगे जाते हैं। भले ही वो कॉलेज में केवल महीनाभर पढ़ा हो।

कितने ही छात्र अपने दस्तावेजों के लिए परेशान होते देखे जा सकते हैं। क्या कोई बताएगा कि ऐसा भला किस नियम के चलते होता है? इतना ही नहीं इन निजी संस्थानों से सांठ-गांठ कर यूनिवर्सिटी के कर्मचारी भी इस खेल में शामिल हो जाते हैं और यदि स्टूडेंट डुप्लीकेट मार्कशीट के लिए आता है तो कॉलेज की शह पर उसे मना कर देते हैं। उसे कॉलेज जाने को कहते हैं। ऐसे में उस छात्र के पास क्या विकल्प है?

निजी शैक्षणिक संस्थानों की मनमानी कोरोना काल में सभी ने देखी है। सरकार केवल शैक्षणिक शुल्क लेने की अनुमति दी लेकिन शैक्षणिक शुल्क क्या है ये परिभाषित ही नहीं किया। हाल ये है कि सरकार ने कोरोना काल के गुजर जाने के बाद भी शैक्षणिक शुल्क क्या है इसे अब तक परिभाषित नहीं किया है। क्या ये सरकार का निजी शैक्षणिक संस्थानों को खुला संरक्षण नहीं है? इन मामलों में निश्चत रूप से इन शिक्षकों और कर्मचारियों की कोई भूमिका नहीं है। लेकिन छात्रों सामने सस्थान के इस व्यापारिक एजेंडे को चलाने वाले यही लोग हैं।

संस्थान यह कह सकता है कि फीस उसका अधिकार है। उसे सरकार से कुछ नहीं मिलता है। लेकिन क्या संस्थानों को ये पता है कि वो प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नहीं है। हमारे देश में शैक्षणिक गतिविधिया सोसाइटी के माध्यस से संचालित होती हैं कंपनी के माध्यम से नहीं। कभी फुरसत मिले तो स्लम एरिए में जाकर देखिए। वो बच्चे जिनके माता-पिता मजदूर करके भी उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए निजी स्कूलों में भेजते थे।

कोरोना काल में जब रोजगार पर संकट आया तो ये माता पिता भी बच्चों की फीस नहीं जमा कर पाए। इनमें कईं के परिवार अभी तक इस स्थिति में नहीं आ पाएं है कि बच्चों की बकाया फीस का भुगतान कर सकें और वहीं स्कूल इसके बिना उन्हें न तो पढ़ने दे रहे हैं औऱ् न ही उनके टीसी वापस कर रहे हैं कि माता-पिता बच्चों को कम से कम सरकारी स्कूल में पढ़ा सकें। क्या शिक्षा के निजीकरण का अर्थ इसका व्यापारिकरण होता है?

इन संस्थानों ने अपने कर्मचारियों को शोषण का भी एक दुष्चक्र रच रखा है। विशेषकर महिलाएं घर चलाने में पति को सहयोग करने की दृष्टि से इन संस्थानों में नौकरियां लेती हैं। वेतन भी योग्यता की तुलना में आधा भी नहीं होता है। इस तरह से एक शोषण तो यह होता है और दूसरा ये कि वे अपने बच्चों के भविष्य बनाने के लिए उसे”अच्छी ” शिक्षा दिलाने के लिए इन्हीं संस्थानों में उन पैसों को खर्च कर देती हैं। इस तरह से वे दोहरे शोषण के शिकार हैं। खास बात ये है कि उनके पास इस शोषण के विरुद्ध कोई संरक्षण भी नहीं है।

इंदौर में हुए इस हादसे में भी प्राचार्य की गलती केवल इतनी ही लगती है कि वे वही कर रहीं थीं जो कि उनके मालिक ने उनसे कहा। ये विवाद उनका व्यक्तिगत होगा इसकी संभावना न के बराबर है। निजी संस्थानों में कार्यरत शिक्षकों और स्टाफ को इससे सबक लेना चाहिए कि नौकरी से मिल रहे वेतन की तुलना में कितना जोखिम लिया जाना चाहिए?

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