कोरोना की आड़ में मजदूर से बड़े खिलवाड़ की तैयारी
मप्र और उप्र ने की एक-तरफा श्रमिक कानून में बदलाव की तैयारी, मजदूर को नौकरी से निकालना हो जाएगा आसान, कोर्ट भी नहीं जा सकेंगे श्रमिक
कोरोना के बाद श्रमिकों को अपनी नौकरी बचाने में करना पड़ेगा संघर्ष। श्रमिक का मतलब वे नहीं हैं जो शारीरिक श्रम करते हैं बल्कि इसमें 25 हजार से कम वेतन पाने वाले सभी कर्मचारी आते हैं।
नई दिल्ली.
जो पैदल घर लौटते मजदूर और औरंगाबाद का एक्सीडेंट देखकर भावुक हैं, वे थोड़ा और रूकें। उनके लिए सरकार ने श्रम सुधार नाम का एक और अस्त्र संभाल के रखा हुआ है। इस अस्त्र के इस्तेमाल में भाजपा शासित मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश राज्य प्रमुख हैं। हाल ये है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो तीन साल के लिए श्रम कानूनों को खूंटी पर टांगने की तैयारी कर ली है। वहीं मप्र के मामा भी इस मामले में पीछे नहीं हैं।
यानी कोरोना की आड़ में उद्योगपतियों और मालिकों को श्रम कानूनों से छूट दे दी गई है वे मज़दूरों के लिए बनाए गए कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं। सबसे खास बात तो ये है कि इस मुहिम की अगुआई दो भाजपा शासित राज्य कर रहे हैं।
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उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बुधवार को अपने मंत्रिमंडल की बैठक में तय किया कि ऐसा ‘प्रदेश में निवेश को बढ़ावा देने के लिए’ श्रम कानून तीन साल के लिए बंद किए जा रहे हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक के बाद जारी किए गए बयान में कहा गया कि अब राज्य में श्रमिकों से जुड़े केवल तीन कानून ही लागू होंगे, बाकी सारे कानून तीन साल के लिए प्रभावी नहीं रहेंगे।
ये तीन कानून हैं-भवन और निर्माण श्रमिक कानून, बंधुआ मजदूरी विरोधी कानून और श्रमिक भुगतान कानून की पांचवीं अनुसूची।
इसके अलावा अब श्रमिकों को आठ की बजाय 12 घंटे काम करना पड़ेगा और इसके लिए उन्हें कोई ओवरटाईम नहीं दिया जाएगा। हिमाचल प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में भी मजदूरों को आठ के बजाय 12 घंटों की पाली में काम करना पड़ेगा।
उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव आरके तिवारी ने मंत्रिमंडल के निर्णय के बारे में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि अब प्रदेश के बहुत सारे प्रवासी मजदूर वापस अपने घरों को लौट रहे हैं। इसका मतलब है कि सबको रोजगार के अवसर चाहिए होंगे।
इसी तरह मध्य प्रदेश सरकार ने तो श्रमिक अनुबंध क़ानून को 1000 दिनों के लिए निरस्त करने का निर्णय किया है। इसके अलावा ‘औद्योगिक विवाद कानून’ और ‘इंडस्ट्रियल रिलेशंस एक्ट’ को भी निरस्त कर दिया है। मध्य प्रदेश ने जो निर्णय लिया है वो मौजूदा औद्योगिक इकाइयों और नई खुलने वाली इकाइयों के लिए भी है। मजदूरों के काम की जगह को ठीक हालत में रखना मालिक की ज़िम्मेदारी है।
उन्हें कुछ आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना भी उनका दायित्व रहा है लेकिन अब ऐसा नहीं रह जाएगा। यानी की श्रमिकों को अब कार्यस्थल पर अपने हाल पर छोड़ दिया गया है।
राज्य सरकारों ने उद्योगपतियों को उन ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है जो अब तक कानूनन उन्हें माननी पड़ती थीं। नए नियमों के प्रस्ताव को लेकर श्रमिक संगठन उद्वेलित हैं। उनका कहना है कि इससे एक बार फिर औद्योगिक क्रांति से पहले जैसे हालात पैदा हो जाएंगे। उनका आरोप है कि श्रमिकों को बंधुआ मजदूरी की तरफ धकेला जा रहा है।
फिर से बंधुआ बनाने की तैयारी
भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस कहा कि जल्द ही सभी ट्रेड यूनियन इन निर्णयों को अदालत में चुनौती देंगी। लंबे संघर्ष के बाद मज़दूर अपनी स्थिति को बेहतर करने की कोशिश में लगे थे। लेकिन सरकारों ने महामारी का सहारा लेते हुए ‘श्रम कानून’ को मालिकों के पास गिरवी रख दिया है।
वहीं भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी ने ट्वीट कर कहा, “ये तो बंधुआ मजदूर जैसा बर्ताव करने से भी खराब है। क्या भारत का संविधान अस्तित्व में हैं? क्या देश में कोई क़ानून मौजूद है? भारतीय जनता पार्टी की सरकार हमें आदिम काल में धकेल रही है। इसका जमकर विरोध होगा।”
उन्होंने एक ट्वीट में मध्य प्रदेश का उल्लेख करते हुए कहा कि भोपाल गैस त्रासदी के बाद जो श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए जो कानून बनाए गए थे वो सबके कल्याण के लिए थे। हालांकि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के फैसलों पर केंद्र सरकार ने अभी तक मुहर नहीं लगाई है।
केंद्र सरकार के अनुमोदन के बाद ही सभी राज्यों ने जो श्रम क़ानून में बदलाव लाने के प्रस्ताव रखे हैं, वो लागू हो जाएंगे। मगर इससे पहले इन्हें चुनौती देने के लिए श्रमिक संगठन अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की तैयारी में हैं।
कुल मिलाकर यह है कि इसके आगे भी श्रमिकों के लिए आगे का रास्ता कठिन बना दिया गया है। यदि वे बच भी गए तो इसके बाद उन्हें अपनी नौकरी बचाने में संघर्ष करना पड़ेगा। जो कि कोरोना की लड़ाई से कम मुश्किल नहीं होगा ।
नाम से ही हो जाती है वफा की पहचान
वे प्रावधानों जो अगले तीन साल तक के लिए निरस्त कर दिए गए हैं
- काम की जगह या फैक्ट्री में गंदगी पर कार्रवाई से राहत।
- वेंटिलेशन या हवादार इलाक़े में काम करने की जगह नहीं होने पर कोई कार्रवाई नहीं।
- किसी मजदूर की अगर काम की वजह से तबीयत ख़राब होती है तो फैक्ट्री के मैनेजर को संबंधित अधिकारियों को सूचित नहीं करना होगा।
- शौचालयों की व्यवस्था नहीं होने पर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी
- इकाइयां अपनी सुविधा के हिसाब से मज़दूरों को रख सकती हैं और निकाल सकती हैं वो भी अपनी ही शर्तों पर।
- बदहाली में काम करने का न तो श्रमिक अदालत संज्ञान लेगी और ना ही दूसरी अदालत में इसको चुनौती दी जा सकती है।
-इसके अलावा श्रमिकों के लिए रहने और आराम करने की व्यवस्था या महिला श्रमिकों के लिए बच्चों की देखभाल के लिए क्रेच भी बनाना नई कंपनियों के लिए अनिवार्य नहीं होगा। और न ही इन इकाइयों का कोई सरकारी सर्वेक्षण ही किया जाएगा। - मध्य प्रदेश ने वर्ष 1982 में भोपाल गैस त्रासदी के बाद एक श्रमिक कल्याण कोष की स्थापना की थी जिसके तहत हर साल कंपनियों को प्रत्येक मज़दूर के हिसाब से 80 रुपये जमा करने अनिवार्य थे। अब इस व्यवस्था को भी समाप्त करने का फैसला लिया गया है।