कानून ही करता है लव जिहाद का संरक्षण !
सुचेन्द्र मिश्रा
केरल स्टोरी के साथ लव जिहाद एक बार फिर चर्चा में है। इस फिल्म ने केरल जैसे उच्च शिक्षित राज्य की वास्तविकताओं को पूरी दुनिया के सामने लाने का महत्वपूर्ण काम किया है और साथ ही यह भी बताया है कि फिल्म केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं है। यदि सही दिशा में हो तो एक फिल्म राष्ट्रीय चिंतन का विषय हो सकती है।
एक पत्रकार के रूप में मैंने 2008 में केरल के लव जिहाद को लेकर एक पैकेज बनाया था। उस समय मैं देश के सबसे तेजी से बढ़ रहे अखबार में काम कर रहा था और वामपंथी शिक्षा के साए में इस पैकेज को उच्च स्तर का सांप्रदायिक विचार मानते हुए प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया था। हालांकि उस समय भी इसमें केरल की चर्चों के द्वारा लव जिहाद की अवधारणा को स्वीकार करने के पर्याप्त वक्तव्य सम्मिलित किए गए थे ।
लंबे समय तक देश के मीडिया ने लव जिहाद को प्रकाशन योग्य मुद्दा नहीं माना। उनके अंदर बैठे हुए धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों और संपादकों ने इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उन जैसे दक्षिणपंथी संगठनों का प्रोपेगेंडा मानते हुए इस पर चुप्पी साधे रखना ही बेहतर समझा था । लेकिन एक पत्रकार के रूप में मैंने हमेशा इस पर नजर रखी और इसे प्रकाशित न कर पाने की विवशता के बीच भी मैं सतत रूप से इस तरह के मामलों में रुचि लेता रहा ।
लेकिन अब वातावरण बदल चुका है। देश के प्रमुख मीडिया संस्थानों ने केरल की छिपी हुई वास्तविक कहानियों को सामने लाने की उत्कंठा दिखाई है । लव जिहाद का अंतिम लक्ष्य पूरी दुनिया में एक समान है लेकिन केरल में यह जिस संगठित स्वरूप में चलाया गया है उसका उदाहरण आपको संभवतः कहीं और देखने में नहीं मिलेगा । शिक्षित जेहादी कितना खतरनाक होता है केरल इसका उदाहरण है क्योंकि यहां पर केवल लव जिहाद के माध्यम से धर्मांतरण नहीं हुआ बल्कि कॉलेज में पढ़ने वाले वर्ग विशेष के छात्रों ने हिंदू छात्राओं को विशेष रूप से धर्मांतरण के लिए चिन्हित किया और उनका ब्रेनवाश किया गया। केरल में बिना लव जिहाद के भी धर्मांतरण के पर्याप्त मामले हैं। यहां का मुस्लिम बहुल मल्लपुरम क्षेत्र इस धर्मांतरण की गतिविधियों का केंद्र है ।
जब आप धर्मांतरण की इस गतिविधि को देखेंगे तो आप पाएंगे कि इसका सबसे बड़ा संरक्षक भारतीय कानून है। अपने आसपास से लेकर केरल की अखिला तक के मामले का अध्ययन कीजिए तो आपको पता चलेगा कि भारतीय संविधान में पाश्चात्य वयस्कता के नियम को लागू किया गया है। जिसके चलते जब इस तरह के मामले न्यायालय में जाते हैं तो कोर्ट वयस्क होने के आधार पर लड़की को यह छूट दे देती है कि वह अपने माता-पिता की मर्जी के विरुद्ध जाकर अपनी मर्जी से किसी भी जाति, धर्म और मान्यता के व्यक्ति के साथ विवाह कर सकती है ।
जब भारतीय संविधान में वयस्क युवाओं को यह अधिकार दिया गया था उस समय इस कदम को बहुत प्रगतिशील माना गया था लेकिन यही नियम अब समस्या की जड़ बन गया है। खास बात यह है कि यह नियम भारतीय संस्कृति की परिवार की विचारधारा से मेल नहीं खाता। क्या यह माना जा सकता है कि 18 और 21 वर्ष का होने के साथ ही बच्चे माता-पिता से स्वतंत्र हो जाते हैं? 9 माह तक अपने पेट में बच्चों को रखने वाली मां का सारा अधिकार क्या बेटी के 18 वर्ष का होते से ही समाप्त हो जाता है? वह पिता जिसने अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए, उनकी आवश्यकता को पूरा करने के लिए पता नहीं अपनी कितनी आवश्यकताओं की बच्चों की आवश्यकताओं के सामने तिलांजलि दे दी, क्या वह पिता बच्चों के 18 बरस का हो जाने के बाद उन पर अपने सारे अधिकार खो देता है?
निश्चित रूप से जब संविधान में यह व्यवस्था की जा रही थी उस समय संविधान निर्माताओं के सामने भारतीय संस्कृति और परिवार की व्यवस्था का कोई स्मरण नहीं था, नहीं तो इस नियम को बनाते समय वे थोड़ा विवेक दिखाते । ऐसा नहीं है कि वयस्क बच्चों को अधिकार नहीं मिलना चाहिए लेकिन वे अधिकार कुछ शर्तों के अधीन तो निश्चित रूप से होने चाहिए।
ये कहा जा सकता है कि माता पिता को बच्चों को ऐसे संस्कार देने चाहिए जिससे वे स्वयं भारतीय संस्कृति के अनुरूप निर्णय लें तो क्या कानून निर्माताओं से यह अपेक्षा नहीं होना चाहिए कि वे संविधान में भारतीय संस्कृति और मान्यताओं का पालन करें।
हमारे संविधान के प्रथम पृष्ठ पर रामदरबार का चित्र है तो क्या हमें।
भगवान श्री राम का उदाहरण इन बच्चों के सामने नहीं रखना चाहिए। उन्हें बताया जाना चाहिए कि जब भगवान श्री राम अपने पिता राजा दशरथ द्वारा माता कैकई को दिए गए वचन के पालन के लिए वन जाना स्वीकार करते हैं उस समय वे ना केवल वयस्क थे बल्कि विवाहित भी थे। वे चाहते तो कह सकते थे कि मैं वयस्क हूं और अपनी मर्जी का मालिक हूं। मैं अपने पिता की बातों को मानने के लिए बाध्य नहीं हूं। लेकिन इसके उलट भगवान श्री राम अपने पिता के अपनी सौतेली मां को दिए गए वचन के पालन के लिए 14 वर्ष का वनवास स्वीकार करते हैं। आप सोचिए कि क्या संविधान में वयस्कता का अधिकार क्या हमारी इस संस्कृति के अनुरूप है?
यदि बच्चे गलती कर रहे हो, अपने लिए गलत जीवनसाथी का चुनाव कर रहे हो तथा माता-पिता इस पर आपत्ति लें तो भी न्यायालय बच्चों के कानूनी आधार दे देता है। याद होगा हादिया बनी अखिला के पिता अशोकन अपनी बेटी को पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गए थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केवल वयस्कता के सिद्धांत के आधार पर अखिला को हादिया बनने की अनुमति दे दी ।
हाल ही में अशोकन ने मीडिया के सामने बताया है कि हादिया लंबे समय से उसके पति शफीन से अलग रह रही है और दोनों के बीच तलाक की प्रक्रिया चल रही है । साथ ही उन्होंने यह भी बताया है कि पीएफआई की एक विंग ने अभी भी जैनब नाम की एक महिला को हादिया के साथ लगा रखा है और वह महिला हादिया को अपने माता पिता के पास लौटने नहीं दे रही है । अखिला के मामले को कोर्ट ले जाते समय उसके पिता ने इन्हीं मुद्दों को उठाया था उनका कहना था कि शफीन ठीक व्यक्ति नहीं है क्या समय ने यह सिद्ध नहीं किया कि अखिला के पिता सही थे?
क्या वयस्कता के आधार पर हादिया के निर्णय को सही ठहराने वाला सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले का कोई संज्ञान लेगा कि यदि वयस्कता के सिद्धांत के अनुसार हादिया का निर्णय सही था और उसे शफीन के साथ रहने का अधिकार था तो उस समय उसके पिता अशोकन द्वारा न्यायालय के समक्ष जो आपत्ति ली गई थी क्या वह गलत थी? हादिया का पति शफीन दूसरा निकाह कर चुका है और हादिया अब एकाकी जीवन बिता रही है । लव जिहाद के खिलाफ संघर्ष करने वाले कार्यकर्ता भी यह लड़ाई केवल इसी आधार पर हार जाते हैं क्योंकि कानून कहता है कि वयस्क लड़की अपनी मर्जी के लड़के के साथ विवाह कर सकती है। कईं मामलों में तो लड़की के बयान के बाद वे कानूनी पचड़ें में भी उलझ जाते हैं।
यदि लव जिहाद जैसे विकट मुद्दों से जूझना है और देश में परिवार और धर्म का संरक्षण करना है तो वयस्कता के इस सिद्धांतों में विवेक का सम्मिश्रण करना आवश्यक है । कुछ राज्यों ने लव जिहाद को लेकर कानून बनाए हैं और कुछ राज्य इसकी तैयारी कर रहे हैं लेकिन जब तक वयस्कों को अपनी मर्जी से किसी के भी साथ रहने का एकतरफा अधिकार रहेगा तब तक लव जिहाद का कोई हल निकलना संभव नहीं दिखता है?
मुझे लगता है कि केरल स्टोरी के बाद देश में वयस्कता के अधिकार पर चर्चा प्रारंभ होना चाहिए। इसके बिना हम केवल इसकी कहानिया ही सुनते रह जाएंगे। क्या कोई राजनीतिक दल या कोई वकील इस विषय को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के पास जाएगा?