नाम से ही हो जाती है वफा की पहचान
नाम से वफा की पहचान का ये दौर बहुत सी ऐसी चीजों में समय खपाने से बचाता है जहां आपको आपके हिसाब का कुछ नहीं मिलना है। एक दिन अपने ही तरह का एक बिरला अखबार सामने आया। पहले पृष्ठ पर ही लेख था “गुजरात मॉडल और केरल मॉडल में क्या बेहतर?” शीर्षक देखकर पढ़ने की इच्छा जागी। जैसे ही पढ़ना शुरू किया सबसे पहले नियमानुसार लेखक का नाम आया। रामचंद्र गुहा। इसके बाद पढ़ने की गुंजाइश नहीं बची। इसलिए नहीं कि गुहा अच्छा नहीं लिखते। बस इसलिए कि ये पता है कि गुहा क्या लिखते हैं?
यह मेरे ही साथ हो रहा है ऐसा नहीं है। पिछले कुछ समय से ये बहुत सामान्य है। यदि आप जी न्यूज देख रहे हैं तो आपको पता है कि ये वो जगह जहां सवाल राहुल गांधी से ही किए जाएंगे और यदि आपने एनडीटीवी ट्यून किया है तो जवाब मोदी से ही मांगे जाएंगे। यानी कि पूरा मीडिया तंत्र सत्ता और विपक्ष की धुरी पर बटा हुआ है। अब इसमें देश, श्रमिक और गरीब के लिए कोई गुंजाईश नहीं बची है। श्रमिक का हाल तो ऐसा है कि जब-जब वो कानून में गरीब होता है तो सरकारें इसको श्रम सुधार का नाम देती हैं। लेकिन वास्तव में होता यह मालिक सुधार है। हालांकि एक ट्रेड यूनियन का सदस्य होने के नाते मैं यह अनुभव करता हूं कि इसके लिए ट्रेड यूनियनें ही मीडिया से ज्यादा जिम्मेदार हैं। अभी ट्रेड यूनियनों को उनके भरोसे छोड़ते हैं और मीडिया की वफा की चर्चा करते हैं।
मीडिया के कुछ दिवास्पप्न हैं जैसे कि अर्नब गोस्वामी मोदी जी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं और रवीश कुमार मोहन भागवत के पक्ष में खड़ें हैं। रजत शर्मा सीताराम येचुरी की प्रशंसा में हैं और सबा अंजुम अमित शाह से मिलकर गदगद हैं। कुछ पाठकों को इस पर भी आपत्ति हो सकती है कि कोई मोदीजी पर भ्रष्टाचार के आरोप कैसे लगा सकता है? वो इसे दिवास्पप्न की तरह देखने से भी इनकार कर सकते हैं और मेरे मन इस तरह का कोई उदाहरण मात्र आने से वे मुझे किसी प्रकार का कोई प्रमाण पत्र जारी कर सकते हैं।
मैं स्वयं को दाहिने पक्ष की विचारधारा से संबंधित मानता हूं। मेरे अतीत के कारण भी मुझे ऐसा ही माना जाता है। जब पत्रकारिता में हूं तो निश्चित रूप से मेरा वास्ता बायें पक्ष को लोगों के साथ भी पढ़ता है। उनमें से कुछ अच्छे मित्र हैं। हम अकसर वैचारिक विवादों में पड़ते हैं और एक-दूसरे को विभिन्न समाचारों की लिंक भेजकर अपनी –अपनी बात को सही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। लेकिन ये सच्चाई है कि मेरे बायें पक्ष के मित्र द्वारा भेजी गई द वॉयर, द क्विंट, लल्लन टॉप, बीबीसी और एनडीटीवी के समाचारों की लिंक को मैं बिना पढ़े ही खारिज कर देता हूं। इसी तरह से मेरा मित्र रिपब्लिक, जी न्यूज, ऑप इंडिया और स्वराज जैसी लिंकों को मान्य नहीं करता है।
ऐसा क्यों है इसके कारणों में जाने में आवश्यकता नहीं हैं। ये अपने आप में स्पष्ट हैं।
हाल ही में ये देखने में आया है कि सत्ता के पक्ष में दिखाई देने वाला एक समाचार पत्र सतत रूप से कोरोना के लिए मोदी सरकार की असफलताओं को गिना रहा है। इसके बाद से ही वो बिकाऊ घोषित कर दिया गया है। यदि वो यह कह रहा होता कि मोदी जी के कारण कोरोना इस देश में ज्यादा नहीं फैल पाया है तो शायद गुड लिस्ट में होता। ऐसा ही होता आया है।
अभी कुछ दिन पहले ही एक राजनीतिक कार्यकर्ता बाजार में प्याज की कीमतें कम मिलने पर भी मीडिया को कोस रहा था। अब आप खोजते रहिए कि इसमें मीडिया की भूमिका क्या है?
चलिए किसी का किसी विचार के साथ चलना बुरा नहीं है। इसके चलते कईं लोगों को यह तय करने में आसानी होती है कि उन्हें क्या पढ़ना है क्या देखना है? लेकिन समस्या ये है कि विचार की इस भीड़ में चरित्र खो गए हैं।
एक पत्रकार हैं। एक समय उनका सौ करोड़ की रंगदारी मांगता वीडिया सामने आया था। तिहाड़ भी गए थे, लेकिन आज राष्ट्रवाद के सिग्नेचर हो गए हैं। कोई गारंटी नहीं है कि कल को सत्ता परिवर्तन होने पर इनका फिर अंगुलीमाल की तरह इनका ह्रदय परिवर्तन नहीं होगा। लेकिन फिलहाल राष्ट्रवादियों के डार्लिंग हैं और इन पर कोई सवाल उठाए को वी सपोर्ट फलाना का हैश टैग अपने पक्ष में ट्रेंड करा सकते हैं। यदि इनके जीते जी देश में पुन: सत्ता परिवर्तन न हो तो हो सकता है कि कालांतर में रंगदारी के लिए जेल जाना राष्ट्रवाद के जेल जाना घोषित कर दिया जाए।
वहीं सत्ता से सवाल पूछने पर एक पत्रकार नौकरी से निकाले गए थे। अब सवाल पूछने वाले पत्रकार को सोशल मीडिया पर ये घटना याद कराई जाती है कि सुधर जाओ या फिर ….! हालांकि ये काम सरकार नहीं करती। करने वाले कौन है सब जानते हैं।
हाल ही में रिपोर्टर्स बियांड बॉर्डर्स नाम संस्था ने मीडिया स्वतंत्रता का इंडेक्स जारी किया है। इसमें प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत को 142वां स्थान मिला है और पिछले साल की तुलना में इसमें दो स्थानों की गिरावट हुई है।
सोशल मीडिया पर केवल यह पोस्ट किए जाने पर तुरंत ही सत्ता के एक समर्थक ने कमेंट किया। जरा ये तो बताओ कि कांग्रेस राज में कौन सा स्थान था। मैने उन्हें बताया कि मनमोहन सिंह के राज में भारत इस इंडेक्स में 110वें नंबर पर था। इसके बाद उन्होंने पूछा कि 1975 मे कौन से स्थान पर था? मैने कहा कि इंडेक्स की शुरुआत 2002 से हुई है।
इस इंडेक्स में भारत का स्थान अटल जी की सरकार के समय ही सबसे अच्छा था। उस समय भारत इसमें 80वें स्थान पर था। शायद अटलजी पहले एक पत्रकार थे, ये उसका असर था।
लेकिन पत्रकारिता में दस साल के मेरे अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि वो मीडिया ग्रुप जो मीडिया के अलावा अन्य धंधे करता हो, कभी भी अपने पाठकों के साथ न्याय नहीं कर सकता है। क्योंकि उसे सरकार से कईं तरह की रियायतें और नीतियों में अपने पक्ष में संशोधन कराने की आवश्यकता पढ़ती है। इनकी सत्ता से वफा दरअसल व्यापार होती हैं। जो सरकार बदलने के साथ बदलती रहती है। याद कीजिए 2009 में यूपीए की सत्ता में वापसी के बाद राहुल गांधी को यूथ आईकॉन बनाने वाला यही मीडिया था।
वफा की तारीफ हर कोई करेगा लेकिन कुछ चीजे वफा से अलग होती हैं। मीडिया उनमें से एक है। इस वफादारी ने मीडिया को वहां पहुंचा दिया है, जहां से आगे उसके सामने अस्तित्व के संकट के अलावा कुछ नहीं है। कभी जानने की कोशिश कीजिए कि राजीव गांधी को सत्ता से बाहर करने वालेी बोफोर्स डील को सामने कौन और कैसे लाया था। यह कारनामा इंडियन एक्सप्रेस की एक महिला पत्रकार का था। यदि आज की भाषा में कहा जाए तो कुल मिलाकर ये पूरी तरह से राष्ट्र विरोधी कृत्य था?
इंडियन एक्सप्रेस उस समय भी सरकार के खिलाफ था और अब भी है। सत्ता बदलने के बाद इस अखबार में प्रत्येक रविवार को कांग्रेस नेता चिदमबरम का लेख प्रकाशित होता है। इस लेख में भी चिदमबरम लेखक या पत्रकार नहीं होते हैं। वे इसमें भी कांग्रेस नेता ही दिखाई देते हैं। हालांकि ऐसा क्यों ? ये मेरी समझ से बाहर है। लेकिन ये बात मैं इंडियन एक्सप्रेस से नहीं पूछ सकता हूं।
मीडिया के मेरे वे साथी, जो न कभी आई सपोर्ट अर्नब का हैशटेग चलाते हैं और न ही रविश कुमार के मैगसेसे अवॉर्ड मिलने की खुशी मनाते हैं। वे इस वफा से भरी दुनिया में घोषित बेवफा हैं। उनके लिए दाग की कुछ पंक्तियां
बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता