27th July 2024

बहुत संक्रामक है कोरोना का पीडीएफ…

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मैं तुम्हें बताउंगा कि तुम्हें दीवाली कैसे मनानी है? होली कैसे खेलनी ही? कैसे जलानी है? हां लेकिन तुम मुझसे सवाल मत करना भले ही मैं खबर का धंधा करूं, नवरात्री को बेचूं या फिर तुम्हें कभी पुलिस और कभी आईएनएस के नाम से डराऊं? भले ही ईद के नाम पर कुर्बानी न करे कहने में मेरा पिछवाड़ा फट जाता हो लेकिन तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। आखिर मैं एक अखबार हूं। ज्यादा तीन पांच करोगे तो तुम पर मुकदमें लाद दूंगा। तुम्हें जेल भिजवा दूंगा।

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कोरोना ने बहुतों के करम सामने ला दिए है। बहुतों की नीयत का पर्दाफाश कर दिया है। हां साथ ही यह भी बताया है कि इंसान अपने आपका भी मालिक नहीं है। लेकिन कुछ मालिकों को अब तक ये समझ नहीं आया है। अखबार मालिक इसमें पहली पायदान पर आते हैं।

विज्ञान और विश्व स्वास्थ्य संगठन भले ही कहता रहे कि कागज पर कोरोना का वायरस 24 घंटे तक जीवित रह सकता हो लेकिन मुझे धंधा करना है। इसलिए मैं कहूंगा कि अखबार के कागज से कोरोना नहीं फैलता? हालांकि ये बात बाद में जाकर इनकी समझ में आई कि कोरोना इनका पाठक नहीं है, ये जिससे कमाये भी और उसी को डरा भी लें।

इन अमिताभ बच्चन के पड़ोसियों की कमाई निश्चित रूप से अखबार के उस वितरक से ज्यादा होगी, जिसने सौ साल से इस धंधे में होने के बाद भी कोरोना के संक्रमण को देखते हुए अखबार का वितरण बंद कर दिया। लेकिन सामाजिक सरोकार की बात करने वाले जब भी इन सरोकारों से धंधे पर थोड़ा भी असर पड़ रहा हो तो भाग खड़े होते हैं।

न्यूज पेपर्स की एक एसोसिएशन है। विकीपीडिया के अनुसार ये दरअसल अखबार मालिकों का प्रेशर ग्रुप है। जो इनके धंधों की रखवाली के लिए बनाया गया है। ये वैसा ही है जैसा की कोई कबाड़ी एसोसिएशन। इसको कोई न्यायिक शक्तियां प्राप्त नहीं है। ये केवल सरकार से अपने सदस्यों की सौदेबाजी के लिए बना है। लेकिन समय आएगा तो मैं इसके नाम से भी आपको डराउंगा।

अपने ही अखबार में छापकर कि मुफ्त में पीडीएफ पढ़ना पाप है। ग्रुप में सर्कुलेट करोगे तो सजा हो जाएगी? लेकिन आप ये नहीं पूछ सकते कि अरे भाई तेरा कबाड़ी एसोसिएशन कोई संसद है या कोई कोर्ट है जो इसके नाम से तू डराने आ गया है?

देखिए दरअसल ऐसा है कि मैं खुद जितना बेवकूफ हूं मैं अपने पाठको को उससे ज्यादा बेवकूफ मानकर चलता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि आहार, निद्रा, भय, मैथून को ही जीवन मानने वाले न मेरा विरोध करेंगे और न मुझे पढ़ना बद करेंगे।

मूल बात पीडीएफ नहीं है। मूल बात ये है कि कहीं कोरोना पाठकों को पीडीएफ अखबार पढ़ने की आदत न डाल दे। नहीं तो मेरी दुकान का क्या होगा। जो अखबार के उद्योग को जानते हैं उन्हें पता है कि महंगी छपाई के चलते अखबार केवल पूंजीपतियों के बूते का सामान ही रह गए हैं। लेकिन ये जो पीडीएफ है न, वो इस एकाधिकार को समाप्त कर सकता है। कोई भी प्रतिभाशाली झुंड (यदि वो जीवन के थपेड़ों से अपनी प्रतिभा को बचा सका) तो अखबार निकाल लेगा। उसके बाद मेरा क्या होगा?

जल्द ही मैं मेरे कबाड़ी एसोसिएशन से मांग करने वाला हूं कि कबाड़ खरीदने के लिए मर्सीडीज पर आना जरूरी है ऐसा नियम भी बनाये इन ठेले वालों के कबाड़ खरीदने पर प्रतिबंध होना चाहिए। भाई आखिर ऐसे कैसे कोई ठेले पर कबाड़ खरीद सकता है?

हालांकि मेरे सभी भाई ऐसे नहीं है। बिजनेस स्टेंडर्ड नाम का और मेरा भाई है। उसका ई-पेपर फ्री नहीं है। लेकिन उसने कोरोना के लॉक डॉउन को देखते हुए एक महीने के लिए अपना ई-पेपर फ्री कर दिया।

कल ही एक भाई सरकार से 15000 करोड़ की मदद मांग रहा था। उसका कहना है कि कोरोना के चलते हमें विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं। अब सरकार हमको पैसा दे। ये बात और है कि इससे ज्यादा पैसा तो हमने कर्मचारियों का दबा रखा है।

लेकिन मेरा एक और भाई है। उसे लॉक डॉउन का मौका मिला और वो अपने कर्मचारियों की सैलेरी दबाकर बैठ गया। सुना है प्रधानमंत्री के साथ लॉकडॉउन की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान इसमें खूब राष्ट्रवाद का राग गाया था। 24 मार्च को लॉक-डॉउन लगा था। यानी महीनें के 24 दिन काम 100 प्रतिशत चल रहा था। बेचारा संपादकीय विभाग तो अब भी कोरोना संक्रमण का खतरा उठा कर काम कर ही रहा है। लेकिन इसने कर्मचारियों का वेतन काट लिया।

इसको बहुत सुप्रीम कोर्ट याद आता है। बार-बार उसके निर्णयों का हवाला देता है लेकिन जब बात मजीठिया की हो तो बेचारा कोर्ट का ऑर्डन न पढ़ पाता है और न समझ पाता है। ये किसी भी कानून का जानकर बनकर ज्ञान दे देता है लेकिन 65 साल बाद भी वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट नहीं समझ पाया है। खैर हमारी जात ही ऐसी है। इसे केवल आप ही सुधार सकते हैं और कोई नहीं….!!!

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