एक बैंककर्मी की व्यथा
बैंक कर्मी अपने वेतनमान और सेवा संबंधी दशाओं से पीड़ित महसूस कर रहे हैं। रविवार को उन्होंने अपनी समस्याओं की ओर सरकार और आमजन का ध्यान आकर्षित करने के लिए ट्वीटर पर बैंक निर्माण भारत हैशटेग ट्रेंड किया। ये हैशटेग रविवार को अधिकांश समय तक पहले स्थान पर ट्रेंड करता रहा। गूंज भारतीय छात्रों को सिटीजन जर्नलिज्म प्लेटफॉर्म है। इसे जनता के मुद्दों के लिए बनाया गया है ताकि वे मुद्दे सामने आ सकें जिन्हें व्यवसायिक मीडिया हाथ लगाने से परहेज करता है। क्योंकि बैंक उनके बड़े विज्ञापनदाता हैं। बैंकर्स की इस व्यथा को जानने के लिए हमने सर्च किया तो सामने आई एक बैंकर की अपने शब्दों में लिखी हुई कथा। जो हम आपके साथ वैसी की वैसी शेयर कर रहे हैं। पढ़िए एक बैंक कर्मी की कलम से उन्हीं की कहानी ।
ये पोस्ट 2018 में लिखी गई थी इसलिए हो सकता है कि मुद्दों में कुछ परिवर्तन हो गया हो।
एक बैंक कर्मी की कलम से
आज की परिस्थितियों में बैंककर्मी चक्की के दो पाटों में पिस रहे अनाज की तरह हो गए हैं जो दूसरों की भूख तो मिटाता है किंतु स्वयं का अस्तित्व खोकर।
चाहे कोई भी इंसान हो छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, अपने जीवन में सुख और शांति चाहता है और कोई भी काम/ नौकरी जीवन निर्वाह हेतु की जाती है लेकिन हम केवल काम के लिए जी रहे हैं। अन्य किसी चीज़ का जैसे हमारे जीवन में अस्तित्व ही नहीं है।
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सभी विभागों में दफ्तर पहुँचने और वापस जाने के समय बने हुए हैं और पहुँचने के समय का पालन चाहे होता हो या नहीं किन्तु वापस घर जाने का समय कोई नहीं चूकता। जबकि बैंकों में तो एक कहावत ही बन गई है कि बैंक में आने का समय होता है, जाने का कोई समय नहीं होता।
अधिकतर बैंककर्मी समय के पाबंद होते हैं और स्वतः अनुशासित भी। जिन विभागों का समय 9 या 9.30 बजे है उनमें चाहे कार्य की शुरुआत होती हो या नहीं किन्तु बैंकों में 9.45 से 10 बजे तक कार्य की शुरुआत की जा चुकी होती है। भोजनावकाश का भी पूर्ण उपयोग हममें से कई लोग नहीं करते और शाम तक निरंतर कार्य करते हैं। स्वाभाविक रूप से 5 बजे तक हम थक जाते हैं( जबकि हकीकत ये है कि 5 बजे तो बैंक से निकलना असंभव जैसा है)।
इसके बाद भी हमसे और अधिक रुकने को कहा जाता है और साथ ही ये भी कि अधिकारियों के कार्य का कोई समय नहीं होता है।
मैं जानना चाहता हूं कि क्या अन्य विभागों में या मंत्रालयों में पद पर बैठे हुए सब लोग अपना पूरा काम खत्म करके ही घर जाते हैं कि अब कुछ नहीं बचा है, सुबह कोई नया काम आयेगा तो काम करना पड़ेगा नहीं तो बस बैठे रहना है। नहीं है ना ऐसा तो, तो फिर कैसे वो लोग समय पर घर चले जाते हैं।
अब कुछ तथ्य आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ जिनसे सबको पता चल जाएगा कि बैंकर्स के साथ कितना भेदभाव हो रहा है और छोटे छोटे से कितने ही घोटाले मिलाकर कितनी चपत बैंकों और बैंकर्स को या बैंक ग्राहकों को लगाई जा चुकी है / लगाई जा रही है।
1) SSC, UPSC जैसी सेवाओं हेतु आवेदन की फीस 100 से 200 रू तक है किंतु यहां 600 रू। बैंक की नौकरी करने की इच्छा रखने वालों के परिवार क्या ज्यादा अमीर होते हैं?
2) बैंक सेवा में नियुक्ति के समय हमको न्यूनतम सेवा अवधि हेतु बॉण्ड भरना होता है। उस अवधि से पहले छोड़कर जाने वालों से बॉन्ड की राशि वसूल की जाती है। ये राशि क्लर्क के लिए 1 लाख और अधिकारी के लिए 2 लाख है। इसके साथ ही 1 से 3 महीने पूर्व त्यागपत्र देना होता है। अन्यथा बैंक उतनी अवधि की तनख्वाह भी लेता है।
जबकि सरकारी सेवाओं में ऐसा नहीं है।
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3) बैंक वाले यदि सेवा करते हुए साथ में पूर्णतः सरकारी किसी सेवा हेतु प्रतियोगी परीक्षा में भाग लेना चाहें तो उन्हें सरकारी कर्मचारी होने के नाते मिलने वाली आयु सीमा इत्यादि छूट नहीं मिलती। सरकारी माना ही नहीं जाता। सारी सरकारी योजनायें लागू करने हेतु केवल हम ही उपयुक्त हैं किंतु किसी का कोई पत्र अटेस्ट करने का छोटा सा भी काम हो तो हम नहीं कर सकते, जो अधिकार सरकारी कर्मचारियों को मिला हुआ है।
4) हमें शहरों से लेकर गांवों में, जहां भी नियुक्त किया जाता है, वहीं रहने की हमसे अपेक्षा की जाती है। किंतु नेताओं से लेकर बड़े अफसरों तक क्या सभी लोग ऐसा कर रहे हैं।
हम ऐसे गांवों में भी सेवा दे रहे हैं जहाँ ऐसे मकान रहने को नहीं मिलते जिनमें रसोई और बाथरूम की सुविधा भी उपलब्ध हो। पानी 3 से 4 दिन में एक बार आता है और वो भी 100 लीटर भी मिल गया तो आपकी किस्मत अच्छी है। पीने के लिए फ़िल्टर पानी की उपलब्धता नहीं है।
अगर गाँव में बोतलबंद पानी भी मिल रहा है तो आप खुशकिस्मत हो। हालाँकि आपको 100 रू रोज पानी पीने पर ही खर्च करने होंगे। जबकि इन सबको तो तमाम सुविधाएं भी निर्वाचन/ नियुक्ति स्थल पर उपलब्ध रहती है। और अगर नेता और बड़े अफसर भी गांव में रहेंगे तो क्या विकास नहीं होगा। क्या ये लोग अपनी कार टूटी हुई सड़कों से होकर ले जाना पसंद करेंगे। सुविधाएं मिलेंगी तो हमें कहाँ परेशानी है मुख्यालय पर रहने में।
पर हम लोगों पर इतना दबाव बनाया जाता है कि अगर कोई पूरी रात के लिए मुख्यालय के बाहर रहने वाला है तो उसे सक्षम अधिकारी की पूर्वानुमति लेना आवश्यक है।
5) अन्य सभी विभाग अपने दफ्तर और कर्मचारियों के लिए निवास बनाने के लिए स्वतंत्र हैं किंतु भारत सरकार ने एक आदेश के द्वारा बैंकों को अचल संपत्ति ना बनाने के लिये कहा हुआ है।
अधिकतर जगहों पर मुँहमाँगा किराया देकर भी पूर्ण सुविधाओं युक्त परिसर नहीं मिलते।
अब कुछ ज्यादा गंभीर मुद्दों पर आता हूँ।
6) सरकार कोई भी नियम बनाती है तो बिना किसी नागरिक के हस्ताक्षर करवाये स्वतः ही उन पर लागू हो जाता है। लेकिन सरकारी कहे जाने वाले बैंक सरकार द्वारा बनाये गए नियमानुसार सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद ग्राहक के हस्ताक्षर लेकर उसको ऋण देते हैं ।इसके उपरांत भी प्रत्येक 3 वर्ष के भीतर ग्राहक से ऋण पावती पत्र प्राप्त करना आवश्यक होता है, जिसमें ग्राहक ऋण प्राप्त करने और अद्यतन शेष की जानकारी की पुष्टि देता है।
यदि 3 वर्ष की अवधि में ऐसा नहीं किया जाता है तो दस्तावेजों की वैद्यता समाप्त हो जाती है। और इसकी समस्त ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत रूप से शाखा प्रबंधक या उक्त कार्य को कर रहे अधिकारी की होती है। और प्रबंधन द्वारा ऐसे मामलों में सम्पूर्ण ऋण की राशि प्रबंधकों से वसूले जाने की कुछ घटनाएँ भी हो चुकी हैं।
इसके लिए 2 वर्ष पूर्ण होते ही ऋण पावती पत्र प्राप्त करने की कोशिश शुरू कर दी जाती है।
क्यूँ नहीं इस नियम को खत्म कर देती है सरकार। पारदर्शिता के लिए इतने सारे नियम बने हुए हैं। जब जब ग्राहक खाते का स्टेटमेंट मांगे, तब तब देना है। ग्राहक को पूर्णतः संतुष्ट करना है। फिर भला इस नियम की क्या जरूरत है?
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क्या कभी आयकर विभाग किसी आयकर दाता से पावती प्राप्त करता है कि उसे उसकी कर योग्य आय और कर के बारे में जानकारी दी गई और वह पूर्णतः संतुष्ट है। खुद के कमाई में से टैक्स भरते समय आयकर विभाग पूरी जवाबदेहिता करदाता की बताता है। किंतु बैंक के रुपये उधार लेने वालों की कोई जवाबदेहिता नहीं है। उनको तो समझाया जाना चाहिये, समय समय पर सूचित किया जाना चाहिए।
फिर कुछ अधिक विचार करने पर पता चला कि उक्त पावती पर राज्य मुद्रांक नियमों के अनुसार कुछ राशि के राजस्व टिकट भी लगाने होते हैं। राजस्थान में यह राशि 10 रू है जो पहले 2 रू थी। मतलब बिना कुछ किये सरकार को करोड़ों ऋण खातों से अरबों रू की आय।
ये था घोटाला नंबर 1।
7) सरकारी कर्मचारियों को बिना एक भी शब्द कहे, समयानुसार स्वतः ही वेतन आयोग द्वारा वेतन वृद्धि मिल जाती है। जबकि बैंककर्मियों को ढाई से तीन साल लड़ने के पश्चात अपना हक़ मिलता है।
इस पर जब मैंने गौर किया तो कुछ तथ्य सामने आए। मान लीजिए कि सैलरी में औसत वृद्धि रू 6000 प्रतिमाह है।
अगर आप 6000 रू की आवर्ती जमा 2.5 वर्ष के लिए किसी बैंक में करवाते हैं तो मूल राशि रू 180000 के साथ 17130 रू (7% की दर से)उसका ब्याज भी मिलता है ना कि बैंक आपको मूल रकम देकर टरका देता है।
तो चौदह लाख कर्मचारियों से सरकार ने कम से कम 840 करोड़ की लूट कर ली।
अब आगे बढ़ते हैं।
यदि समयानुसार वेतन वृद्धि मिलती तो उसी के अनुसार आय और आयकर की गणना करके निवेश किया जा सकता था। किंतु एकसाथ प्राप्त हुए एरियर की राशि को पिछले वर्षों में जाकर उसका पुनः निवेश नहीं किया जा सकता। पर उस पर आयकर की गणना जरूर पुराने वर्ष की आय में जोड़ते हुए की जाएगी। और यदि पुराने वित्त वर्ष की आय ना दिखाएं तो चालू वित्त वर्ष की आय बहुत बढ़ जाने के कारण 20 या 30% टैक्स अनावश्यक ही देना पड़ेगा।
अब देखिए कि 72000 रू प्रतिवर्ष औसतन हमें पूर्व में मिल जाते तो हम योजनानुसार निवेश करके 7200 से लेकर 21600 तक का टैक्स बचा सकते थे। किन्तु अब विकल्प नहीं बचता है।
तो इस प्रकार सरकार पुनः हम 14 लाख कर्मचारियों से न्यूनतम 1008 करोड़ रू की लूट कर लेती है।
ये है घोटाला नंबर 2।
8) अब बात करते हैं बैंकों में Staffing Pattern की अर्थात कितने व्यवसाय पर कितना स्टाफ शाखा में होना चाहिए। कितनी शाखाओं पर नियंत्रक कार्यालय होने चाहिए और उनमें कितना स्टाफ़ होना चाहिए।
बड़ा ही पेचीदा मुद्दा है और इसको निर्धारित करने के लिए सरकार ही समयानुसार विभिन्न समितियाँ बनाती हैं। ग्रामीण बैंकों के लिए 2012 में एक मित्रा कमिटी बनी थी। उसकी सिफारिशों के अनुसार भी देखें तो बैंकों में स्टाफ 60% ही है। जबकि वर्तमान सरकार ने तो सम्पूर्ण क्रियाकलापों का भार ही हम पर लाद दिया है। बिना बैंक से गुजरे कोई योजना ही लागू नहीं होती । हक़ीक़त देखी जाये तो बैंकों में 40% ही स्टाफ उपलब्ध है। मैं स्रोतों की पुष्टि करके लिखना चाहता था किंतु आपको स्रोत बताने में अक्षम होने के कारण क्षमाप्रार्थी हूँ।
फिर भी आप मानव शक्ति को लेकर बनी समितियों की जांच कर सकते हैं और आप भी पाएंगे कि मेरी बात बिल्कुल सच है।
यानी मोटे तौर पर 35 लाख की जगह 14 लाख कर्मचारी। ऐसे भीषण बेरोजगारी के समय 21 लाख लोगों की नौकरियाँ दबाकर बैठ गयी है सरकार।
ये है घोटाला नंबर 3।
9) जन धन योजना और पश्चातवर्ती अन्य योजनाओं की बात करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक 31 करोड़ खाते खोले गए अत्यल्प समय में।(इसके बारे में wikipedia पर जानकारी है, और विश्व रिकॉर्ड भी दर्ज है।) सबको निःशुल्क खाता पासबुक और एटीएम भी जारी किए गए।
खाता खोलने के फॉर्म, पासबुक और एटीएम को मिलाकर ही बैंक को लगभग 100 रू लागत आती है।(प्लास्टिक एटीएम की लागत की जानकारी गूगल पर उपलब्ध है)
3100 करोड़ की लागत के अतिरिक्त मानव श्रम और समस्त संसाधनों के उपयोग को जोड़ा जाए तो ये राशि कितनी होगी, मैं इसका अंदाजा भी नहीं लगा पा रहा हूँ। अब अगर इसमें एटीएम को वितरित करने की लागत और मानव श्रम की लागत जोड़ें तो स्थिति और भी भयावह हो जाती है।
लालकिले से योजना का ऐलान करते समय आपने एक शब्द इस बारे में नहीं कहा कि किसी का एक खाता है तो उसे दुबारा खाता खुलवाने की जरूरत नहीं है।
अब जनता बैंक वालों पर भरोसा करे या देश के प्रधानमंत्री पर। नतीजा सामने है। एक एक से लाखों करते करते अपरिचालित एवं बंद किये जा रहे खातों की संख्या करोडों में पहुंच चुकी होगी।
अव्यवस्थित रूप से पूरी योजना लागू की गई और इसका नुकसान बैंकों, बैंकर और ग्राहकों को उठाना पड़ा।
ये है घोटाला नंबर 4।
10)अब नजर डालते हैं APY की तरफ। इसके बारे में कई लोग आपको बता चुके हैं । इसलिए मैं उस तरह की जानकारी आपको नहीं दे रहा हूँ। बस इसके कुछ नियमों को देखते हैं।
अ) इससे जुड़ने वाले व्यक्ति को PRAN कार्ड जारी किया जायेगा जिसके बदले 50 रू काटे जायेंगे।
ब) खाते में प्रतिवर्ष रखरखाव शुल्क न्यूनतम रू 35 भी काटा जायेगा।
स) यदि कोई व्यक्ति प्रिमियम का समय पर भुगतान नहीं करता है तो अर्थदंड भी लगाया जायेगा।
लेकिन आदमी का चाहे जितना पैसा हो चुका हो, उसे जीते जी कुछ नहीं मिलेगा, 60 वर्ष का होने के बाद पेंशन मिलेगी और मृत्यु पश्चात एक निश्चित रकम नामांकिती को। क्यों नहीं पूरी रकम उसकी आवश्यकतानुसार उसे दी जा रही है।
मतलब कि बैंक ने खाता खोला और पासबुक दी- निःशुल्क। बैंक ने कोई वार्षिक रखरखाव शुल्क नहीं लगाया। फिर अपने कर्मचारी को APY करने में लगा दिया।
आपको बैठे बिठाए सब कुछ मिल गया। उसके बाद भी आप हर एक बात का शुल्क ले रहे हो। और फिर कहते हो कि बैंक फायदे में नहीं है या मुनाफे में कमी हुई है। और घटे हुए मुनाफे के अनुसार ही वेतन वृद्धि दी जायेगी।
PMJJBY योजना को भी देख लें एक नजर। 50 वर्ष से कम आयु वाले ही जुड़ सकते हैं लेकिन 55 वर्ष की आयु तक बीमा प्रीमियम कटेगा और बीमा लाभ मिलेगा। ये साधारण मौत के मामले में है। जबकि दुर्घटना मृत्यु के मामले में आप 70 वर्ष की आयु तक बीमा लाभ दे रहे हो। आखिर क्यूँ….
यदि सच में गरीब जनता को ही लाभ पहुंचाने का इरादा है तो साधारण मृत्यु के मामले में भी 70 वर्ष तक बीमा लाभ दीजिये ना। भारतीयों की औसत आयु भी 68.35 वर्ष है.. 55 वर्ष से तो ये भी ज्यादा है।
जब इसकी गहरी पड़ताल करेंगे तो पता चलेगा कि ये भी है एक घोटाला…. घोटाला नंबर 5।
11) फसल बीमा योजना की बात करता हूँ। जिसके बारे में इसे बनाने वालों के विचार भी स्पष्ट नहीं होंगे। राष्ट्रीय स्तर पर एक ही पोर्टल पर सब बैंक वालों को किसान द्वारा बोई गई फसलों की सूचना और कितने क्षेत्र में क्या बोया गया इसकी सूचना भरनी होती है। साथ ही उसकी जमीन के खाता/खसरा संख्या भी भरने होते हैं। उसका नाम ,पता, मोबाइल, आधार जैसी जानकारी भी भरनी होती है।
जमीन का खाता संख्या हर चार वर्ष में बदल जाता है( राजस्थान में जैसी व्यवस्था है)।किन्तु बैंक वालों को नवीनतम खाता संख्या ही भरना है।
कितनी जमीन पर कितना और क्या बोया जा रहा है, ये जानकारी रखना पटवारी, गिरदावर या कृषि विभाग के सरकारी कर्मचारियों का काम है जो सरकार हमसे करवा रही है। किस फसल का कितना प्रीमियम बनेगा ,किसान को ये बताना बीमा कंपनी का काम है जो कि हम करते हैं।
इसके बाद भी पोर्टल पर बीमा करते समय कई सारे गाँव नहीं आते, कुछ गांवों में उस मौसम की पूरी फसलें नहीं आती हैं। बार बार कृषि विभाग को सूचना करने पर भी उक्त समस्याओं का निराकरण नहीं किया जाता है। और किसी भी प्रकार की कमी रह जाने, या बीमा नहीं हो पाने की स्थिति में बैंककर्मियों की जवाबदेही निर्धारित है।
अगर बैंक वाले सच बोलें तो सामने आ जायेगा कि आधे आँकड़े ( चाहे गांव का नाम हो या फसल का नाम या बुवाई क्षेत्र ) फर्जी भरने पड़े हैं। क्यूंकि महीने भर के काम को 5 से 10 दिन में करने का दबाव बनाया जाता है।
बीमा कंपनी और कृषि विभाग, दोनों का काम बैंक कर रहे हैं। तो उनके कर्मचारी क्या कर रहे हैं.. ऐश।
ये क्या किसी घोटाले से कम है।
12) Amalgamation/Merger/ Process of combining: बैंकों का एकीकरण
इस मुद्दे पर बैंकर्स के भी अलग अलग विचार हैं। कुछ इसके पक्ष में हैं और कुछ विरोध में। लेकिन अगर हम निष्पक्ष रूप से देखना चाहें तो बैंकर्स और आम आदमी दोनों के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।
आपको बैंकों के एकीकरण के फायदे बताता हूँ।
यदि सब बैंकों को मिलाकर कुल 3 बड़े सरकारी बैंक ही रखे जायें( एक बैंक भी रख सकती है सरकार सबको मिलाकर) तो आम आदमी को पूरे देश में कहीं भी लेन देन करने के लिए उसका बैंक मिलेगा( अभी ग्रामीण बैंकों के ग्राहकों को राज्य के बाहर उनका बैंक नहीं मिलता )।
जहाँ NEFT/ RTGS/ CLEARING HOUSE की जरूरत होती थी वहाँ केवल ट्रांसफर से काम हो जायेगा। समय, श्रम और धन की बचत होगी।
(क्लीयरिंग में यदि कोई चेक रिटर्न हो जाता है तो नियमानुसार उसे 24 घंटे के भीतर ग्राहक को सुपुर्द किया जाना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा कर पाना असंभव सा है। ना स्पष्ट पता होता है और ना मोबाइल नंबर।)
अघोषित आय को उजागर करने हेतु सरकारों को उल्टे सीधे हथकंडे नहीं अपनाने पड़ेंगे। एक ही बैंक में होने से सारी संपत्ति सरकार की नजरों में रहेगी।
एक दूसरे के ग्राहक छीनने की कोशिश करने की जगह बैंकर्स बस अपना काम किया करेंगे और शाखा स्तर पर कर्मचारियों की कमी को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है। अन्य गैर सरकारी संस्थानों से मुकाबला करने में बड़ा बैंक सक्षम होगा।
और अलग अलग बैंको में दिए जा रहे वेतन, भत्ते
और सुविधाओं में एकरूपता आयेगी।
सरकार इस मुद्दे पर भी ऐसे चल रही है जैसे कछुआ चलते समय बीच बीच में सो जाता हो।
13) आधार का अत्याचार:
आधार कार्ड बनाने जब शुरू हुए थे तो हमारे प्रिय प्रधानमंत्री जी, जो उस वक़्त गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, ने
इसका घोर विरोध किया था।
किन्तु आज उन्होंने ऐसी एक भी चीज नहीं छोड़ी जो बिना आधार मिल जाये । शायद श्वास लेने में भी आधार की जरूरत पड़ेगी।
अगर काम को व्यवस्थित ढंग से किया जाए तो किसी को क्या समस्या हो सकती है लेकिन आदेश जारी होते हैं तो तुग़लकी फरमानों की तरह।
वर्तमान में एक आदेश जारी किया हुआ है सरकार ने। सब खातों को 31 मार्च
से पहले आधार से जोड़ने का और उससे भी ज्यादा मुश्किल एक और आदेश Adhar Authentication का। Adhar Authentication में ग्राहक का नाम, पता, जन्मतिथि
आदि एकदम आधार के अनुरूप होना चाहिए। जब आधार खातों में जोड़ना शुरू किया था , तब ये बोलते तो साथ साथ चल सकता था लेकिन अब 31 मार्च
से पहले ही ये भी करना है। बहुत अधिक दबाव बनाया जा रहा है। मतलब कि पिछले 3.. 4 साल
की सारी गलतियाँ 3 महीने
में ठीक हो जायें।
क्या ऐसा कर पाना संभव है?
14) Cross Selling उत्पादों से होने वाली कुल आय बैंकों की आय का 5 % भी नहीं है। लेकिन फिर भी मुख्य कार्य करने पर पूरा ध्यान देने के बजाय ऐसे काम करके आय बढ़ाने का दबाव बनाया जाता है। जैसा कि आपने बताया ही है, सब ऊपर वालों के कमीशन का खेल है। 15) सॉफ्टवेयर से लेकर हार्डवेयर तक सब कुछ खरीदना ऊपर वाले लोगों के हाथ में है। यहाँ भी जमकर कमीशनखोरी की जाती है।
Annual Maintenance Contract के बारे में शाखाओं को कोई जानकारी नहीं दी जाती है कि किस दर पर उपकरण की खरीद की गयी है । कब कब कंपनी से व्यक्ति आकर सिस्टम को चेक करेगा और खराबी होने पर अधिकतम कितने समय में कार्यवाही पूरी कर ली जाएगी।
15 से 20 दिन तक भी हमारे बैंक की शाखाओं को अलग अलग कारणों से दैनिक कामकाज दूसरी शाखा में जाकर करना पड़ा है। सुनवाई करने वाला कोई नहीं है।