क्या एक ही स्वामी प्रसाद मौर्य है भाजपा में ?

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सत्ता के पैर भारी हैं
इसे कुर्सी पर बैठे रहने की बीमारी है

गोपाल प्रसाद व्यास की ये लाइने आम आदमी तो जानता है लेकिन सत्ता के खिलाड़ी इससे अनजान होने का नाटक करते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य अब भाजपा के लिए गुजर गए हैं। वैसे वो 2016 में जब भगवा गमछा ओढ़े थे तभी पता था कि अब वे सिर पर लाल-हरी टोपी पहनेंगे क्योंकि बसपा की नील से तो वे पहले ही नहा चुके थे। ऐसा नहीं है कि यह बात आधुनिक चाणक्य की पदवी धारी अमित शाह नहीं जानते थे। सभी को सबकुछ पता था लेकिन ये सत्ता की साझेदौरी थी, जिसमें अपलू-टपलू सब मौसेरे भाई थे। अकेले स्वामी प्रसाद ही नहीं बल्कि तीन सौ के पार जाने वाले इस संख्या बल में दर्जनों को दलबदलू अधिनियम के अधीन ही कमल निशान मिला था।

खैर बहुत से स्वामी अभी भी पार्टी में हैं और बहुत से स्वामी आने की तैयारी में हैं। कुछ स्वामी जाएंगे भी लेकिन यह अंतिम सत्य है कि जब तक राजनीति रहेगी तब तक ये स्वामी रहेंगे। बस इस बार समस्या इतनी है कि् स्वामी के जाने का मुहूर्त ठीक नहीं है। उन्होंने हाथी वाली बहनजी को अपने बिना जीने की आदत ड़ालने के लिए एक साल का समय दिया था लेकिन भगवाधारी को एक महीना भी नहीं दिया। चुनाव सिर पर हैं और अब नई डील का समय नहीं है।

ऐसा नहीं कि स्वामी वाले प्रयोग केवल यूपी में हुए हैं। 2014 के बाद से ही इस राजनीतिक अ‌वसरवाद को राष्ट्रवाद के कवच और कुंडल मिल गए हैं। जो कल तक भगवा रंग छू जाने पर भी नहाते थे, वो अब असली भगवाधारियों को असली भगवा मंच से ही भगवा का ज्ञान दे रहे हैं। ये वही लोग हैं जो कि यूपीए के राज में सेक्युलरिज्म के पुरोधा थे और साधारण नमस्ते को भी नमस्ते सदा वत्सले समझकर नाक-मुंह सिकुड़ते थे लेकिन आजकल इन्हें जोरों से राष्ट्रवाद आ रहा है। इतना जोर से कि असली वाले तो कचरे की तरह किनारे लगा दिए गए हैं।

अब ये लोग भगवा में बेहतर संभावनाएं देखकर अपनी विचारधारा को मोबाइल सिम कार्ड की तरह पोर्ट करा चुके हैं। हां इस बात कोई गारंटी नहीं है कि जब सेक्यूलरिज्म इन्हें अंबानी के जियो की तरह मुफ्त का टाकटाइम देगा तब इन्हें गंगा जमनी तहजीब की याद नहीं आएगी। ये वो लोग हैं जो सत्ता के लिए ही बने हैं और सत्ता भी इन्ही के लिए बनी है। अरे भाई दूसरे शब्दों में कहें तो ये वो लोग हैं जिन्हें देश के विकास में दलालों के योगदान का सही-सही अंदाजा है और इसके चलते ये नईं सरकार को अच्छे से सलाह दे पाते हैं।

लेकिन इसमें गलती स्वामियों की नहीं है। लगातार तीन बार से लोकसभा और विधानसभा चुनाव हार रहे नेता को अपनी पार्टी में लाकर मंत्री बनाया गया जबकि वहीं से तीन बार से जीत रहे आदमी के सिर अपना टिकट कटने का खतरा मंडरा रहा हो तो वो क्या करेगा? क्या सत्ता केवल आपको ही चाहिए? यह तो सोचा जाना चाहिए को जो खुद अपनी सीट पर तीसरे नंबर पर आ रहा हो वो पार्टी को क्या फायदा पहुंचाएगा? लेकिन आपने एक स्वामी और पैदा कर लिया जिसमें गलती उस स्वामी की कम और खरीददार की ज्यादा है?

यदि स्वामी प्रसाद को भाजपा ने अपनी पार्टी में नहीं लिया होता तो क्या यूपी में उसकी सरकार नहीं होती? बल्कि स्वामी प्रसाद पांच साल तक विपक्ष में रहते लगभग खत्म हो चुके होते। सबसे पहले तो आपको ये गलतफहमी दूर कर लेना चाहिए कि स्वामी जैसे लोग सरकार बनवाने के लिए आते हैं। ये दरअसल बनने वाली सरकार में हिस्सेदारी लेने के लिए आते हैं। ये लोग इस तरह से यह अंहकार भी पाल लेते हैं कि वे जिधर जाएंगे सरकार उनकी बनेगी।

गलती तो उनकी है जिन्हे किसी भी कीमत पर सत्ता चाहिए। बंगाल चुनाव में भाजपा को इन स्वामियों ने ही पलीता लगाया था। ये लोग सुपारी किलर की तरह से पार्टी में शामिल हुए और बाद में ससम्मान अपनी दीदी के पास लौट गए। मप्र में साढ़े तीन साल की सत्ता के लिए जो बीमारी मोल ली गई है वो पार्टी के कईं दशक खराब कर सकती है।

खास बात ये है कि स्वामियों की यह चर्चा एक नाम के बिना पूरी नहीं होगी। इस बार के यूपी विधानसभा चुनाव में राम मंदिर उतना ही बड़ा मुद्दा है जितना की 1993 के चुनाव में था। लेकिन इस बार एक खास अंतर है कि जो पार्टी मंदिर के मुद्दे को उठाएगी उसी के टिकट पर एक ऐसा प्रत्याशी भी चुनाव लड़ेगा जिसके बाप ने संसद में कहा था कि रम में बसे राम, जिन में बसी जानकी और ठर्रा में हनुमान।

नरेश अग्रवाल को भी जोर का हिन्दुत्व आया और वे एक हिन्दू वीर के दाहिने हाथ का दाहिना हाथ पकड़कर भाजपा में आ गए और भगवाधारी उसके बेटे के यूपी विधानसभा का उपाध्यक्ष बनवाते देेखे गए। अब ये उपाध्यक्ष फिर से कमल का बी फॉर्म लेकर विधानसभा पहुंचने की तैयारी करेगाऔर हां यदि सरकार में समाजवाद आ गया तो बिना इस्तीफा दिए ही लाल हरी टोपी पहन लेगा। स्वामी जो आज कर रहे हैं इनके बाप वो दशकों से करते आ रहे हैं।

बहरहाल राजनीति में स्वामी थे, स्वामी हैं और स्वामी रहेंगे।

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