‘क’ से कोरोना ‘क’ से कलेक्टर…
भारत को कलेक्टर देने वाले इंग्लैंड में कलेक्टर का कोई पद नहीं
सबसे पहले तो आप यह जानना चाहेंगे कि क्या कोरोना और कलेक्टर में कोई संबंध है? तो सीधे तौर यह कहा जा सकता है कि इनमें कोई वैज्ञानिक संबंध नहीं है । वैसे भी वैज्ञानिकता का कलेक्टर से कोई लेना देना नहीं है, ये विशुद्ध रूप से एक प्रशासनिक पद है जो हमारे देश में अंग्रेजों की देन है।
1772 में वारेन हेस्टिंग्ज भारत में अंग्रेजी शासन की नीव मजबूत करने के लिए इसे लाए थे। अंग्रेज तो 74 साल पहले ही चले गए लेकिन इस पद को यहीं छोड़ गए। काले अंग्रेज इसे अब तक ढ़ो रहे हैं बल्कि उन्होंने कंपनी सरकार के इस नौकर तो जनतंत्र में भी जनता का मालिक बनाकर बैठा दिया।
खास बात ये है कि भारत में कलेक्टर लाने वाले इंग्लैंड में कोई कलेक्टर जैसा कोई अधिकारी नहीं पाया जाता है क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि ये कोई सकारात्मक पद नहीं है। लेकिन इसके उलट हमारे देश में हम इस पद को और भी शक्तिशाली बनाते चले गए। ये ही नहीं हमारे यहां इस व्यवस्था में चूजे की हैसियत रखने वाले डिप्टी कलेक्टर से लेकर नायब तहसीलदार तक को हमने वो अधिकार दे रखे हैं जो कि इस देश के सुप्रीम कोर्ट के पास भी नहीं हैं।
ये भारतीय राजव्यवस्था के ऐसे पद हैं हैं जिनके पास प्रशासनिक और न्यायिक दोनों शक्तियां हैं यानी ये खुद आदेश जारी करते हैं, उनका पालन कराते हैं और जज बनकर इन आदेशों पर न्यायिक सुनवाई भी करते हैं। ये शक्ति तो इस देश के सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस को भी हासिल नहीं है ! यानी की तृतीय श्रेणी का एक शासकीय कर्मचारी नायब तहसीलदार तक इतना नायाब है कि उसे जो प्राप्त है वो इस देश के चीफ जस्टिस को भी प्राप्त नहीं है !
आज कोरोना काल ने हमे बहुत कुछ सिखाया है। कलेक्टर ही सरकार के कोरोना हैंडल करने की रणनीति की धुरी है। जिलों में लॉक डॉउन चलाने वाले तंत्र की धुरी कलेक्टर है। साथ ही यह भी कि ये सिस्टम कितना असंवेदनशील है।
कोरोना बेकाबू है अव्यवस्थाएं चरम पर हैं लेकिन साहब जलवे ऐसे हैं आज तक हमने देश में कहीं पर भी कोरोना से निपटने में असफल रहने पर कलेक्टर के बदले जाने के समाचार नहीं सुनेे हैं। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि रिचार्ज की अवधि समाप्त होने के पहले ही आउटगोईंग सेवाएं समाप्त कर दी जाएं? आखिर इनकमिंग भी तो कोई चीज होती है।
कालांतर में मुख्यमंत्रियों को लगने लगा कि लगान कलेक्ट करने के लिए रखा गया यह अधिकारी नजराने कलेक्ट करने में भी कारगर है। इसके बाद सत्तारुढ़ दल के जनप्रतिनिधियों के बुरे दिन शुरू हो गए। कलेक्टर सीएम के आंख, नाक और कान हो गए और जन प्रतिनिधि आजतक अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को ये समझाने में लगे हैं कि अधिकारी उनकी सुनवाई नहीं करते। वो शीघ्र ही इस मामले में मुख्यमंत्री से बात करेंगे।
लेकिन वे जानते हैं कि वे बात भी नहीं कर पाएंगे क्योंकि वे अपने दम पर नहीं बल्कि पार्टी के चुनाव चिन्ह से जीते हैं। ऐसे में कलेक्टर ही माई बाप है। इसी के चलते लाखों वोटों से जीते जनप्रतिनिधि क्राइसिस मैनेजमेंट कमेटी में केवल सरकारी चाय बिस्किट के लिए जाते हैंं और बाहर आकर साहब ने क्या निर्णय लिया है ये बताते हैं।
अब ऐसे में जनता कलेक्टर को आधुनिक समय का जिल्ले इलाही समझती है तो क्या गलत करती है? लेकिन कोरोना काल ने कलेक्टर साहब की इस छवि को बहुत आघात पहुंचाया है। आज अधिकांश कलेक्टर स्थानीय स्तर पर फैली अव्यवस्था के पालक बनकर उभरे हैं। वो निशाने पर हैं लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्रियों से जो पोस्टिंग का रिचार्ज कराया था , उसकी वैलिडिटी अभी समाप्त नहीं हुई है इसलिए वे और कोरोना का कुप्रबंधन, दोनों बने हुए हैं।
थोड़ा देखें कि सरकार से कलेक्टर को क्या मिलता है? शहर में कईं एकड़ का बंगला, दर्जन भर नौकर, माली, ड्राईवर। इसके अलावा सुरक्षा करने के लिए दर्जन भर सुरक्षाकर्मी। ये आदमी कभी भूलकर भी दूध,सब्जी या किराने का सामान लेने नहीं जाता । ऐसे में वो उन लोगों के बारे में निर्णय ले रहा है जिनके घर सप्ताह भर का भी राशन नहीं होता। और तो और पैसे देकर भी आमजन को सुविधा न मिले फिर भी वह साहब से सवाल नहीं कर सकता।
उसे पता है कि शहर में कितनी ही बड़ी आफत आ जाए उसके बच्चे को दूध मिलता रहेगा, इसके चलते उसे दूध बंद करने के पहले किसी के बच्चे का ख्याल तक नहीं आता? उसे पता है कि चाहे कर्फ्यू लग जाए उसके घर खाने की कमी नहीं पड़ने वाली फिर भी आटा चक्की बंद करने के आदेश दे देता है? उसे पता है कि उसके एक फोन पर अस्पताल में जगह्, ऑक्सीजन और रेमडेसिविर उपलब्ध हो जाएगी इसलिए वो अस्पतालों की मनमानी पर कोई कार्रवाई नहीं करता?
जो कलेक्टर कोरोना की पहली लहर में मेडिकल स्टोर वालों को पैरासिटेमाल खरीदने आने वालों के नाम पते दर्ज करने के आदेश दे रहा था वो रेमडेसिविर और फेबी फ्लू के मामले में इस व्यवस्था को क्यों लागू नहीं कर रहा है? ये सवाल हर उस आदमी से पूछिए जो कि अंहकारी और असफल नौकरशाही के पक्ष में खड़ा है।
क्या कलेक्टर को टाउन क्लर्क बना देने का समय आ गया है?
जब इंग्लेंड में डीएम की तरह पद नही होता तो वहां क्या होता है यह जानना जरुरी है। वहां पर इस तरह की ज्यादातर काम देखने के लिए टाउन क्लर्क या सिटी क्लर्क होता है। इस पर भी स्थानीय निर्वाचित निकाय का नियंत्रण होता है। यानी कि वह खुद सरकार नहीं होता है।
यहां सवाल उठता है कि यदि कलेक्टर का पद इतना करिश्माई है तो अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को अपने देश में क्यों नहीं बनाए रखा? सीधा सा कारण है कि कलेक्टर दरअसल जिले पर सत्ता के नियंत्रण का उपाय था न कि व्यवस्थाओं को सुचारू रुप से चलाने का यंत्र। वो पहले जिस तरह से जिले में वायसराय के प्रतिनिधि था, उसी तरह से आज मुख्यमंत्री का प्रतिनिधि है।
यहां सवाल उठ सकता है कि फिर विधायक और सांसद क्या हैं? इस बात का जवाब को सांसद और विधायक स्वयं दे सकते हैं कि कलेक्टर के आगे वो क्या हैं क्योंकि ये सबसे बेहतर वहीं जानते हैं कि कलेक्टर और उनमें से किसकी सुनवाई मुख्यमंत्री के पास ज्यादा होती है।
टाउन क्लर्क को हमारे कलेक्टर की तरह से सुविधाएं नहीं मिलती हैं । यहां तक कि उसे वाहन भी कार्यालय आने के बाद मिलता है जिसे वो वापस कार्यालय छोड़कर अपने वाहन से अपने घर जाता है। कहने का मतलब है कि उसे जिल्ले इलाही नहीं बनाया गया है।
सभी कलेक्टर इस महामारी में असफल रहे हैं ऐसा नहीं है। कलेक्टरों में भीलवाड़ा के कलेक्टर का अलग से उल्लेख करना जरुरी है। जहां पर हिन्दी भाषी क्षेत्रों में कोरोना की महामारी सबसे पहले देखने में आई लेकिन इस जिले ने अपनी जीजीविषा के दम पर इसे सबसे पहले नियंत्रण में भी किया। हालांकि भीलवाडा के कलेक्टर को हीरो मानने में कुछ राजनीतिक मजबूरियां हैं लेकिन इससे इस जिले की उपलब्धियां कम नहीं हो जाती हैं।
लेकिन जिला प्रशासन का अंतिम सत्य कलेक्टर ही है। इस बात का अंदाजा तो आप तहसीदार और पटवारी के तेवर देखकर ही लगा सकते हैं। कोरोना के लॉक डॉउन ने साहब के सर्वज्ञाता और सर्वशक्तिशाली होने के मिथक को बहुत नुकसान पहुंचाया है। कोरोना की लड़ाई के साथ ही प्रशासनिक व्यवस्थाओं को दुरुस्त किए जाने की लड़ाई भी लड़ना जरुरी है।