RRB-NTPC बवाल : किसान आंदोलन के बाद मोदी घिरेंगे बेरोजगारी पर !!
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RRB-NTPC बवाल बिगाड़ रहा है भाजपा के समीकरण
चुनाव जब तक पूरा न हो जाए वो किसी भी चीज से प्रभावित हो सकता है। ऐसा ही मामला RRB-NTPC बवाल के रूप में सामने आया है। लेकिन इसका सबसे स्याह पहलू यह है कि पुलिस और प्रशासन के सहायता से हालात पर काबू पाने की निर्भरता में योगी आदित्यनाथ की कुर्सी दांव पर लग गई है। किसी के भी राजनीतिक कौशल की परीक्षा इसी सेे होती है कि उसे सरकार चलाने में इनका कितना कम उपयोग करना पड़ता है लेकिन इस पैमाने पर केवल योगी ही नहीं भाजपा के लगभग सभी मुख्यमंत्री कच्चे ही साबित हुए हैं।
RRB-NTPC बवाल भी रेल मंत्रालय की देन है और ये भी संयोग ही है कि रेल मंत्रालय का मुखिया भी पूर्व ब्यूरोक्रेट ही हैं। नेता इतना भी सामान्य ज्ञान लगाने को तैयार नहीं होते हैं कि ब्यूरोक्रेट किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं होते क्योंकि एक बार नौकरी में आ जाने के बाद सेवा शर्ते उन्हें सरकार का दामाद बना देती हैं। इसके उलट नेता थोड़ा लिहाज इसलिए करता है क्योंकि उसे हर पांच साल में अपनी वैलिडिटी रिचार्ज कराने जनता के पास जाना पड़ता है। इसी के चलते ब्यूरोक्रेट्स में संवेदनशीलता की कमी होती है। लेकिन मोदी जी ने अपने मंत्रिमंडल में ब्यूरोक्रेट्स को महत्वपूर्ण विभाग दे रखे हैं।
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यूपी की बात करें तो पहले कानपुर में पुलिस के हाथों व्यापारी की मौत और उसके बाद चलते चुनाव में छात्रों पर बर्बर लाठी चार्ज के बाद ये माना जाना चाहिए कि योगी अपनी गलतियों से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वे आज तक ये नहीं सीख पाएं हैं कि पुलिस स्टेट कभी भी लोकतांत्रिक सरकार के हित में नहीं होती है। ये दरअसर अपना पैर कुल्हाड़ी पर मारने जैसा ही है। इसका पता इस बात से भी चलता है कि मूर्ख पुलिस प्रशासन अपनी किरकिरी हो जाने के बाद भी छात्रों को गिरफ्तार करता फिर रहा है और ऊपर से कोचिंग संचालकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर रहा है।
बड़ी बात ये है कि इस मामले में योगी मौनी बाबा बने हुए हैं। चुनावी समय में भी योगी के अफसर बार-बार ये साबित कर रहे हैं कि उनकी मूर्खता की कोई सीमा नहीं है। खास बात ये है कि पिछले पांच साल से वे लगातार यही करते आ रहे हैं। यदि आपको ऐसा नहीं लगता तो आप हाथरस को याद कर सकते हैं।
आरआरबी भर्ती के मामले को आंकड़ों के आईने में देखे बिना आप इसकी गंभीरता का अंदाजा नहीं लगा सकते। आरआरबी की इस परीक्षा का नोटिफिकेशन लोकसभा चुनाव के ठीक पहले युवाओं के वोट लेने के लिए जारी किया गया था। इसमें लगभग डेढ़ लाख पोस्ट के लिए 1.25 करोड़ युवाओं ने आवेदन किया था। इसमें से साठ प्रतिशत यानी कि लगभग 75 लाख से ज्यादा यूपी और बिहार के हैं। यदि इनमेंं से आधे यूपी के माने जाएं तो समझिए कि 35 लाख युवा और उनके परिजन अपने वोट से कितने ही संभावित माननीयों का पिछवाड़ा सूजा सकते हैं?
अब इसमें एक खास बात और । पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अमित शाह के चुनाव प्रचार का क्या असर होगा जैसी चिरकुट बातों पर भी ओपिनियन पोल कर लेने वाले सी वोटर को अब तक इन लाखों छात्रों की नाराजगी का भाजपा पर क्या असर होगा जैसे ओपीनियन पोल करनेे की फुरसत नहीं मिली है। वैसे करेंगे भी तो यही बताएंगे कि नहीं इसका भाजपा पर कोई असर नहीं होगा। असर तो वैसे ही पता चलेगा जैसे कि बंगाल में पता चला था।
खैर इस पूरे मामले में मोदी सरकार की कोई कम गलती नहीं है। दरअसल आरआरबी की परीक्षा जिस गति से चल रही थी सरकार की योजना 2024 में भी इसी के दम पर वोट लेने की लग रही है। दूसरी बात यह है कि मोदी सरकार ने किसान आंदोलन से कोई सबक नहीं सीखा है, नहीं तो वे इस मामले में कमेटी कमेटी नहीं खेलते। कोई ठोस निर्णय लेते। कुल मिलाकर अब युवाओं की समझ में आ रहा है कि यदि एयर इंडिया रतन टाटा खरीद लेंगे तो इसका सीधा असर उनके रोजगार पर होना है। खासकर आरक्षित वर्गों के रोजगार पर। क्योंकि क्या रतन टाटा एयर इंडिया में भर्ती करने के लिए कोई आरक्षण के रोस्टर का पालन करेंगे क्या?
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ऐसे में इन अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के छात्रों को पता है कि मोदी सरकार दरअसल निजीकरण करके उनके नौकरी के अवसर छीन रही है और उन्हें लगता है कि मोदी एक बार और सत्ता में आ गए तो रेलवे भी निजी हाथों में सौंप देंगे और उसके बाद सरकार नौकरी सपना ही हो जाएगी। इसका पता इन छात्रों से बात करने से चलता है। ऐसे में आप यह मान लीजिए की मोदी जी को अब बेरोजगार युवाओं से चुनौती मिलने वाली है। शायद यह चुनौती किसान आंदोलन से भी बड़ी होगी।
इस बाबत युवा हल्लाबोल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुपम ने कहा, केंद्र सरकार में सात-आठ लाख पद खाली पड़े रहते हैं। भर्ती का विज्ञापन जारी होने से लेकर नियुक्ति पत्र मिलने तक की प्रक्रिया पूरी होने में तीन-चार साल लग रहे हैं। ऐसे में सरकार पर भरोसे का तो सवाल ही नहीं उठता।
सरकार ने खुद ही भरोसा तोड़ा
युवा हल्लाबोल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुपम ने कहा, केंद्र सरकार की ज्यादातर भर्तियों को पूरा होने में तीन-चार साल लग रहे हैं। एक छात्र, 23 साल की आयु में नौकरी का फार्म भरता है और उसे 27वें साल में रिजल्ट मालूम चलता है। अगर वह फेल हो जाता है तो आगे क्या करेगा। उसके पास तो दूसरा चांस भी नहीं बचा, क्योंकि वो ओवरएज के दायरे में आ गया है। जिस छात्र ने सरकारी नौकरी के लिए खूब मेहनत की हो और आखिर में उसे ऐसा रिजल्ट मिले तो उसकी मनोस्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं।
उस छात्र को अपने ऊपर मनोवैज्ञानिक दबाव के साथ-साथ पारिवारिक और सामाजिक दबाव भी झेलना होता है। दूसरी ओर सरकार को इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता। परीक्षा का परिणाम चार-पांच साल में आता है। पेपर लीक हुआ है, उम्मीदवारों के पास दूसरा चांस ही नहीं बचा, मामला अदालत में लंबित है या पूरी भर्ती प्रक्रिया ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है, आदि बातों का असर तो छात्र पर ही पड़ता है। ऐसे में सरकार के भरोसे पर कोई कैसे यकीन कर ले।
अनुपम ने कहा, रेलवे भर्ती के मौजूदा मामले में रेल मंत्री से कुछ छिपा नहीं था। वे सब जानते थे, यह बात उनकी प्रेसवार्ता में साबित हो गई। उन्होंने अपनी समझ को बाहर निकालने में देरी कर दी। छात्रों के विरोध प्रदर्शन के बाद मंत्री ने प्रेसवार्ता की। जब उन्हें मांगों का पता है तो उन्होंने कमेटी क्यों गठित कर दी। खुद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा, हमने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है। अनुपम कहते हैं, कमेटी से कुछ नहीं होने वाला। ये तो चुनाव तक मामले को ठंडा रखने का एक तरीका है। कमेटी पर ध्यान देने की बजाए जो पांच मांगें सरकार के समक्ष रखी गई हैं, उन्हें तत्काल पूरा कर दिया जाए।