11th April 2024

मतदाता के बंधुआ मजदूर बनने की कहानी

लोकतंत्र की स्थापना इस आधार पर हुई थी कि जनता अपने बीच में से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनेगी लेकिन राजनीतिक दलों ने इसे हाईजैक कर लिया है और अब जनता वही चुनती है जो पार्टियां उसके सामने परोसती हैं। बंद कमरों में प्रत्याशी तय हो जाते हैं और पार्टी यह बताने की भी तक्लीफ नहीं उठाती कि उसने प्रत्याशी का चुनाव किस आधार पर किया है। भीषण भ्रष्टाचार के इस दौर में यह नहीं माना जा सकता कि इस अपारदर्शी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार नहीं होता होगा। नहीं तो निकम्मे पार्टियों का चुनाव चिन्ह नहीं पाते। 

सैद्धांतिक रूप से माना जाता है कि मतदाता अपने मत के आधार पर पार्टी के इस चुनाव पर अपनी सहमति या असहमति दे देंगे लेकिन ये इतना सीधा नहीं है जितना दिखाई देता है।  जब गहराई में जाएंगे तो आपको पता चलेगा कि हमारा देश लोकतंत्र या संविधान पर नहीं बल्कि भावनाओं पर टिका हुआ है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि सिंगिंग रियलिटी शो में प्रतिभागी को गरीब, समस्या से ग्रस्त और परेशान दिखाकर सहानुभूति का धंधा किया जाता है। सिंगिंग रियलिटी शो में जितना रोया जाता है उतना तो गाया भी नहीं जाता। वही हाल हमारे चुनाव के हैं, इसमें जितना छुपाया जाता है उतना बताया नहीं जाता। 

1952 से लेकर अब तक मतदाताओं को चुनाव चिन्ह का मोहताज बना दिया गया है। वो चुनाव चिन्हों के बाहर चुनाव के बारे में सोच ही नहीं पाते। इसके चलते सारी लड़ाई पार्टी का टिकट पाने की हो गई है जो कि वास्तव में जनता का विश्वास पाने की होनी चाहिए थी। यही कारण है कि अब राजनीति का जनसेवा से कोई संबंध नहीं रहा। अब इसका संबंध नेटवर्किंग से हो गया है। यदि आपने पार्टी हाईकमान में किसी को सेट कर लिया है तो आप सफल नेता हैं। नहीं तो फर्क केवल इतना है कि दरियों की जगह कुर्सियों ने ले ली है लेकिन लगाने और उठाने का काम वहीं का वही है। ये काम करने वाले चेहरे भी अब तक वैसे ही है,  हां उन पर उम्र की कुछ सिलवटें पड़ गई हैं। 

इस बात को सबसे पहले एकात्म मानववाद के प्रवर्तक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अनुभव किया था और उन्होंने कहा था कि किसी बुरे व्यक्ति को इसलिए नहीं चुन लेना चाहिए क्योंकि वह अच्छे दल से खड़ा है। लेकिन क्या इसका पालन हो रहा है? आज हाल यह है कि पार्टियों को लगता है कि उनका अपना एक वोट बैंक है जो उनकी तरफ से खड़े किए गए चौपाये को भी वोट दे देगा। ऐसा नहीं है कि पार्टियों ने यह निष्कर्ष अपने आप निकाल लिए हैं दरअसल मतदाताओं का व्यवहार उन्हें अब तक इस मामले में सही साबित करता आया है वरना जिसकी औकात 5000 वोट पाने की भी नहीं वह पांच लाख वोट से नहीं पाता। 

यह ठीक है कि राजनीतिक दादागिरी के दौर में मतदाता राजनीतिक दलों से सवाल नहीं कर सकता लेकिन समस्या यह है कि वह अपने आप से भी प्रश्न नहीं पूछता। इसके उलट वो पार्टियों के प्रचार तंत्र का अवैतनिक बंधुआ मजदूर बन गया है। वह अपनी समस्याओं पर नहीं सोचता वह केवल उन समस्याओं के बारे में सोचता है कि राजनीतिक दल का प्रचार तंत्र उसके सामने परोसता है। जबकि होना यह चाहिए कि राजनीतिक दलों को मतदाताओं के एजेंडे पर बात करनी चाहिए। मतदाताओं को स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ और इसका उसे क्या नुकसान है?  उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र का असली मालिक वही है। 

इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान में जो व्यक्ति है उसे कार्यकर्ता कहा जाता है। यदि पार्टी सतत रूप से जीतती रहती है तो यह जीव भी महत्व खो देता है। वो उस समय भी महत्वहीन हो जाता है जब वो आसमान से उतारे गये प्रत्याशी को भी जीता कर भेज देता है। जीतने वाली पार्टियों को कार्यकर्ताओं की नाराजगी  की कोई चिंता नहीं होती। उन्हें पता है कि जब तक सत्ता रहेगी तब तक कार्यकर्ता मिलते रहेंगे क्योंकि पुराना कार्यकर्ता नाराज होकर चला जाएगा तो भी उसकी जगह नई “उम्मीद’ लेकर नया कार्यकर्ता आकर खड़ा हो जाएगा। इसके जिम्मेदार राजनीतिक दल नहीं है इसकी जिम्मेदारी हमारी है, हम ही हैं जो चापलूसी और गुलामी से ग्रस्त हैं और इसीलिए त्रस्त हैं।  

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