29th March 2024

पत्रकारों को जो नेहरू ने दिया था,वो मोदी ने छीन लिया

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वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट समाप्त लेकिन पत्रकार संगठन मौन

सुचेन्द्र मिश्रा

कोई आखिर पत्रकार क्यों बनता है? क्या सोचकर कोई पत्रकारिता में आता है? ये दो ऐसे सवाल हैं जो कि पत्रकारिता में वरिष्ठता का टैग लग जाने के बाद बेमानी हो जाते हैैं। क्योंकि इन सवालों के जवाबों से ही आप पता लगा सकते है कि कौन नया पत्रकार है और कौन मठाधीश हो गया है। नए पत्रकार के लिए पत्रकारिता एक ऐसा फौरम है जिसके जरिए वो आमजन के अधिकार की लड़ाई को लड़ने का सपना पाल कर इस प्रोफेशन में आता है। हालांकि उसके ये सपने बहुत जल्द सत्य से टकरा कर चूर-चूर हो जाते हैं लेकिन फिर भी कुछ नौकरी की मजबूरी के बीच भी अपने आप को थोड़ा बहुत बचा लेते हैं। ये लोग इस प्रोफेशन में सिरफिरे भी कहलाते हैं।

ऐसे ही कुछ बचे कुचे पत्रकारों के लिए 1955 में पं. जवाहरलाल नेहरू वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट लेकर आए थे। देश आजाद हो गया था लेकिन उन्होंने स्वयं अंग्रेजी राज के दौरान पत्रकारिता की थी, अखबार निकाले थे और करीब से देखा था कि तिलक से लेकर गांधी तक के अखबार आजादी के लड़ाई के लिए कितने महत्वपूर्ण साबित हुए थे। अंग्रेजों को खतरा अंग्रेजी अखबार से नहीं था। हां लेकिन वे हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं के अखबारों से डरते थे। इसके चलते वे वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट लेकर आए थे। इसका उद्देश्य केवल भारतीय भाषाओं के अखबार पर सेंसरशिप लागू करना था।

थोड़ा उस समय के अखबार निकालने वालों की ओर भी ध्यान दें तो स्थितियां और भी स्पष्ट हो जाएंगी। उस समय अखबार निकालना घर जलाकर दिवाली मनाने के समान था। इसके चलते शुरुआती समय में सेठ साहूकार इससे दूर थे और ये काम उनके पास था, जो खुद पत्रकार थे और अपनी पत्नी के गहने बेचकर अखबार के फितूर को पूरा करते थे। बाद में जब इसमें बिजनेस दिखने लगा तो पत्रकार मजदूर बन गया और सेठ मालिक। इन्हीं सेठों से गरीब पत्रकारों को बचाने के लिए नेहरू वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट लेकर आए थे। उनका मानना था कि पत्रकार सामान्य मजदूर से अलग है और उसके लिए यह संभव नहीं है कि वो हर दिन नौैकरी बदल सके। इसके चलते इसमें प्रावधान किया गया था कि पत्रकार को नौकरी से निकालने के पहले या तीन माह का नौटिस देना होगा या फिर तीन माह का वेतन।

इतना ही नहीं उसके लिए काम के घंटे भी तय किए गए थे। यदि पत्रकार दिन में काम करता है तो उससे छह घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है और रात में साढ़े पांच घंटेे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है। नेहरू पत्रकारों की आर्थिक स्थितियां भी जानते थे इसलिए इस अधिनियम में उन्होंने पत्रकारों का वेतन न्यूनतम वेतन तय करने के लिए वेज बोर्ड का प्रावधान किया था ।क्योंकि उन्हें पता था कि सम्मानजनक वेतन के बिना पत्रकारिता की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखना संभव नहीं होगा। कुल मिलाकर नेहरू पत्रकारिता को लिफाफों और चापलूसी से मुक्त रखना चाहते थे। (हालांकि उनकी राजनीति के बारे में मैं ये नहीं कहूंगा।)

हालांकि ये बात और है कि इसके होते हुए भी पत्रकार इनसे मुक्त नहीं रह पाए। नहीं तो जनसंपर्क के बीमे और टोल न चुकाने के लिए अधिमान्यता लेने की कोई जरुरत नहीं पड़ती। इसके लिए पत्रकारों से ज्यादा जिम्मेदार उनके संगठन हैं। यदि वे इस अधिनियम के पालन के लिए संघर्ष करते तो संभव था कि पत्रकारिता ऐसा पेशा होता जिसमें कम से कम कोई भी Tom, Dick and Harry तो पत्रकार का तमगा नहीं लगा पाता।

खैर छोड़िए,अब इस मुद्दे के सबसे संवेदनशील पहलू की बात करते हैं। संवेदनशील इसलिए क्योंकि इसमें मोदी का नाम जुड़ा हुआ है। ऐसा भी लग रहा है कि एक दो कौड़ी का पत्रकार सरकार से सवाल करने की हिमाकत कर रहा है। इस आर्टिकल के पब्लिश होने के कुछ घंटों के भीतर ही मुझे कुछ कर्णप्रिय शब्द कमेंट में देखने को मिल सकते हैं। लेकिन यह भी सच पत्रकारिता भी सर्दी, गर्मी, बारिश और लिहाज देखकर नहीं होती।

कोरोना काल चल रहा है और आपदा में अवसर का सूत्र वाक्य सर्वत्र व्याप्त है। इसी आपदा में किसानों और मजदूरों के लिए कुछ कानून आए हैं। ये दोनों भारतीय राजनीति के सबसे लोकप्रिय जुमले हैं। कोई भी वाकई में किसानों और मजदूरों का विरोधी होने के बाद भी इनका विरोधी होने की कल्पना भी नही कर सकता है। लेकिन इसके बावजूद मजदूरों, उनके परिवार और उनके सपनों को ठेके पर दे दिया गया। अब सबकुछ ठेका ही होगा। ठेके पर काम करो और ठेके पर ही जाकर थकान उतार लो।

इसी ठेके में पत्रकार भी आ गया है। वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट समाप्त कर दिया गया है। (वैसे समाप्त तो श्रम विभाग को भी कर दिया जाना चाहिए) अब वो केवल मजदूर है। जिसे ठेके पर रखा जा सकता है। कभी भी घर भेजा जा सकता है और न्यूनतम वेतन के मामले में भी वो कुशल-अकुशल मजदूर के दायरे में आ गया है। यदि इसके बारे में जानना हो तो आप The Occupational, Safety, Health And Working Condition Code 2020 पढ़ सकते हैं। यानी किसी ईंट भट्‌टे पर ईंट बनाने वाला और खबर लिखने वाला एक ही है। शायद इससे देश की एकता और अखंडता मजबूत हो सकती है।

मैं पत्रकारों के लिए अलग कानून के खिलाफ हूं। लेकिन इतने साल इस क्षेत्र में काम कर लेने के बाद ये जानता हूं कि एक एकाउंटेंट को दूसरी नौकरी खोजना जितना आसान होता है उतना पत्रकार के लिए नहीं होता। आखिर आप अपने आप से पूछिए कि आपके शहर में कितने अखबार या चैनल हैं जिनके वेतन का स्तर इस लायक है कि वहां काम करके एक पत्रकार अपने परिवार को पाल सके? इसके चलते पत्रकारों को नौकरी खोने के डर से संरक्षण की जरुरत है। इसके चलते इसके लिए अलग प्रावधान होने चाहिए।

चलिए ये तो सरकार के स्तर पर हुआ लेकिन जो पत्रकारों के संगठन के स्तर पर हुआ वो और भी ज्यादा चौंकाने वाला है। वर्किंग जर्नलिस्ट अधिनियम को समाप्त करने के पहले सरकार ने किसी भी पत्रकार संगठन को विश्वास में नहीं लिया। लेकिन इसके बाद भी इसे लेकर किसी भी पत्रकार संगठन ने अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। आखिर ये संगठन किसलिए बने हैं। क्या सरकार से खैरात मांगना ही इनका एजेंडा है या फिर ये उनके अधिकारों के लिए भी उतने ही चिंतित हैं?

मजीठिया मामले की कहानी बताती है कि चाहे कितने ही संगठन हों लेकिन जिसकी लड़ाई है वही लड़े कि मध्यकालीन राजाओं की प्रवृत्ति आज भी हम में जिंदा है। उसी प्रवृत्ति के चलते मुगलों ने भारत पर राज किया और अब सरकारें कर रही हैं। उठिए कम से कम विरोध में एक ज्ञापन तो दे दीजिए ताकि इतिहास में आपका छोटा सा ही सही लेकिन विरोध तो दर्ज हो।

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