‘युद्ध’ से ‘वीर’ का चले जाना
श्रद्धांजलि
सुचेन्द्र मिश्रा
युद्धवीर सिंह जूदेव नहीं रहे। 39 की उम्र जाने की नहीं होती। खासकर तो उस समय बिल्कुल भी नहीं जब राजनीति में खरा बोलने वालों की संख्या गिरती जा रही है। मैंने अपने पत्रकारिता जीवन में कभी भी अपनी नौकरी की आवश्यकता के अलावा किसी भी नेता की मौत पर कभी कुछ नहीं लिखा। लेकिन युद्धवीर सिंह जूदेव के मामले में मैं खुद को रोक नहीं पाया। आमतौर पर मैं नेता पुत्रों के खिलाफ ही रहा हूं। मेरा मानना रहा है कि नेता पुत्र अपने पिता की राजनीतिक हैसियत के चलते राजनीति शुरू करते हैं। मैंने आमतौर पर नेता पुत्रों में से कोई योग्यता नहीं देखी जिसके आधार पर उन्हें सांसद विधायक या मंत्री बनाया जाए। अपने पिता की छाया भी नहीं होते।
इसी तरह से शुरुआती समय में मैंने भी युद्धवीर जूदेव को भी केवल स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव के बेटे के रूप में लिया था लेकिन कुछ समय में युद्धवीर सिंह जूदेव ने यह साबित किया कि वे केवल नाम में जूदेव होने के चलते राजनीति में नहीं हैं। आम नेता पुत्रों से अलग उन्होंने अपना आभा मंडल तैयार किया। पिता के जल्दी चले जाने के बाद निश्चित रूप से उन्हें स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव की कमी राजनीति में खली होगी। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ में शायद ही कोई विधानसभा सीट ऐसी हो जहां युद्धवीर जूदेव के चाहने वाले न हों। शायद यही कारण था कि जब उन्हें मंत्री बनाया जाना था तब उन्हें बेवरेज कॉरपोरेशन के अध्यक्ष के रूप में सीमित कर दिया गया।
जो युवा केवल 2 बार का विधायक होने के बाद भी पूरे प्रदेश में अपनी मौजूदगी का एहसास कराता हो, उसके मंत्री बन जाने के बाद तो कई लोगों की भविष्य की राजनीति पर संकट मंडरा सकता था। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। उनकी तुलना पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे से की जा सकती है और निष्कर्ष निकाला जा सकता है। मैं युद्धवीर सिंह जूदेव से कभी नहीं मिला। मिलने की जल्दी भी नहीं थी क्योंकि वह बेहद युवा थे और मुझे लगा कि उनसे मिलने के लिए मेरे पास बहुत समय है। हालांकि काल ने मुझे यहां गलत साबित किया। मैं केवल फेसबुक के जरिए ही उनसे जुड़ा था।
स्वर्गीय जूदेव के कि प्रति मेरे मन में उतनी ही श्रद्धा और उतना ही सम्मान रहा जितना कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई को लेकर है। मैं उन लोगों में से हूं जो स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव के घर वापसी अभियान के बारे में सुनते हुए बड़े हुए हैं। छत्तीसगढ़ विधानसभा के उंस चुनाव भी कभी नहीं भूला जा सकता जब जूदेव साहब ने भाजपा के लिए अपनी मूंछे दांव पर लगाई थीं। राज परिवार से जुड़े किसी व्यक्ति के पास दांव पर लगाने के लिए इससे बड़ी कोई संपत्ति नहीं होती, लेकिन उससे भी बड़ी बात उनका छत्तीसगढ़ की जनता पर भरोसा था। उस समय में मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे लेकिन एक षड्यंत्र के शिकार हुए थे। इसके चलते कुर्सी के बहुत पास होते हुए भी बहुत दूर हो गए। सोचिए यदि उस समय दिलीप सिंह जूदेव मुख्यमंत्री बन जाते हैं तो छत्तीसगढ़ की आज की राजनीति क्या होती ?
खैर फिलहाल तो एक बेबाक और जिंदादिल युवा नेता के चले जाने का दुख है। केवल जसपुर ही नहीं बल्कि पूरा छत्तीसगढ़ उनकी कमी महसूस करेगा। विनम्र श्रद्धांजलि!