पत्रकारों के लिए बंद गली का आखरी मकान है कोरोना
राहत की बात है कि कोरोना की मृत्यु दर भारत में नियंत्रण में है। इसकी रिकवरी रेट भी दुनिया में लगभग सबसे ज्यादा है। संक्रमितों की संख्या एक लाख का आंकड़ा पार कर चुकी है। हालांकि यह विशेषज्ञों द्वारा भारत के संदर्भ में लगाए गए अनुमानों की तुलना में बहुत कम है। फिर भी एक अनुमान ऐसा है जो संभवत किसी ने नहीं लगाया लेकिन उसने अनुमान से ज्यादा असर दिखाया है। वो है हमारे नौकरी गंवाने की दर। लाखों नौकरियां जा चुकी है और इतनी ही जाने के लिए कतार में हैं। लॉक डाउन और कोरोना के बीच इनकी गिनती करने वाला कोई नहीं है।
इनमें से कई नौकरियां ऐसी भी है जो शायद अब कभी लौटकर भी नहीं आएंगी। लॉकडॉउन को संचालित करने वाली पुलिस से लेकर अस्पताल के वार्ड बॉय से लेकर डॉक्टर और यहां तक की अपने कार्यालय में ही पीपीई किट पहनकर बैठने वाले प्रशासनिक अधिकारी भी सरकार द्वारा कोरोना वॉरियर्स घोषित कर दिए गए हैं।
काम मीडिया भी कर रहा है, मोर्चे पर पत्रकार भी लगे हुए हैं। लेकिन वे अब तक वाॅरियर नहीं माने गए हैं। पत्रकारों के बारे में ऐसा माना जाता है कि वह एक ऐसा जीव है जिसका काम ही खतरनाक स्थानों पर प्रवेश करके घटना का पता लगाना है। संभव है कि सरकार ने सोचा हो कि यह इनका रोज का काम है, इसलिए इन्हें वाॅरियर मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। चलिए कोई माने या ना माने इससे क्या होता है। पत्रकार एक अलग तरह का वाॅरियर है।
मीडिया हॉउस न मौका देख रहे न माहौल
लॉक डाउन चल रहा है। नई नौकरियों की कोई उम्मीद नहीं है और उसकी नौकरी पर तलवार लटक रही है। लोकप्रिय मीडिया में काम करने वाले आधे पत्रकार इस भय में काम कर रहे हैं कि कल वे ऑफिस में होंगे या नहीं। टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर आदि कुछ बड़े नाम है जिन्होंने न मौका देखा ना माहौल। न उस कर्मचारी की और देखा जो वर्षों से अपनी रातें काली कर रहा है। बस वो देखा जिसे अपना हित कहते हैं।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कटक तक, पत्रकारों की नौकरियां जा रही हैं। नौकरी जाने के इस माहौल ने इतना भयाक्रांत कर रखा है कि जिनकी नौकरी चल रही है वह भी अपनी मार्च महीने की सैलरी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। डर है कि कहीं वेतन मांगने जाएं और टर्मिनेशन गले ना पड़ जाए। इसलिए इस गलतफहमी में काम किए जा रहे हैं कि उनके पास नौकरी है और वह आगामी आदेश तक सुरक्षित हैं।
आगामी आदेश यानी क्या, यह कोई नहीं जानता। जिन बड़े मीडिया हाउस ने कर्मचारियों की छंटनी की है उनके कर्ताधर्ताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन की शुरुआत ने बात की थी। उस समय सभी बेहद राष्ट्रवादी बातें कर रहे थे और इस बात से बेहद प्रसन्न थे कि प्रधानमंत्री उनसे महत्वपूर्ण विषय पर बात कर रहे हैं। कुछ एक ने तो अपने मीडिया में इस बातचीत को प्रकाशित भी किया था। सभी ने लॉकडाउन को पूरा समर्थन दिया था। हां लेकिन अपने कर्मचारियों के साथ वे 2 महीने भी खड़े नहीं रह पाए।
यह तो हो गई समस्या लेकिन इसका समाधान क्या है?
पत्रकारों और पत्रकारिता को करीब से जानने वालों को पता है कि यह वह प्राणी है जो सिंगल-डबल कॉलम करने के अलावा कुछ और नहीं कर सकता। ऐसे में बेरोजगारी का यह संकट इस प्रजाति के लिए कोरोना से भी ज्यादा जानलेवा है। चलिए मान लेते हैं कि मीडिया में काम करने वाला छायाकार इवेंट की फोटोग्राफी करने लगेगा। लेकिन सवाल यह है कि इस माहौल में कोई इवेंट होने वाली है या फिर 50 लोगों की उपस्थिति वाली शादियों में फोटोग्राफी करने के लिए पहले ही 500 लोग मौजूद हैं।
इसलिए यह कहना कि छायाकार के पास विकल्प है यह भी सही नहीं है। खबर नवीस के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता। उसे तो सवाल पूछने और जवाब में जो कुछ मिला उससे खबर गूंथने के अलावा कुछ और नहीं आता! बस यह अपेक्षा हो सकती है कि मार्केटिंग, रिकवरी और अकाउंट्स वाले कुछ छोटा बड़ा पा जाएंगे। लेकिन मूल प्रजाति के ऊपर संकट बरकरार रहेगा।
पैकेज तो मालिक को मिलेगा…
किसी ने सलाह दी कि पत्रकार संगठनों को इस मामले में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अवगत कराना चाहिए। यहां तक कि जिन की नौकरी गई है, उन्हें भी पत्र लिखना चाहिए और अपनी स्थिति बतानी चाहिए। लेकिन इस विकल्प का और भी बड़ा खतरा है। पता चला सरकार पत्रकार की हालत पर द्रवित हो जाए और एक पैकेज अनाउंस कर दे।
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लेकिन पत्रकारों के लिए नहीं, मीडिया संस्थानों के लिए। इससे पत्रकारों को क्या मिलने वाला है इसका अंदाजा दूसरे सैक्टर जिन्हें पैकेज मिला है, को देखकर लगा सकते हैं ? यानी कि पत्रकारों के लिए लगभग विकल्पहीनता की स्थिति है। ऐसा लग रहा है कि पत्रकारिता आजादी के संघर्ष के दौर में पहुंच गई है। जब पत्रकार स्वयं अपना घर बेचकर अखबार चलाया करते थे। लेकिन आज के समय में यह संभव नहीं है।
ऐसे में लगता है कि उद्योगपति रतन टाटा कि उस सलाह को याद करें जिसमें उन्होंने कहा था कि 2020 केवल जिंदा रहने का साल है। समस्या यह है के पत्रकारों के लिए 2021 में भी उम्मीद नहीं दिख रही है। कुलमिलाकर पत्रकारिता बंद गली का आखरी मकान हो गई लगती है। हां ये हो सकता है कि 2030 की किसी महीनें में अपने घर बैठकर पत्रकार अपने बच्चों को यह बताए कि कोरोना के पहले वे भी पत्रकार हुआ करते थे..!!
प्रस्तुत विचार लेखक के हैं