अगले ओलंपिक तक क्रिकेट को अलविदा कहिए..!
रानी रामपाल और उनकी टीम को पता है कि उन्होंने क्या खोया है । वे जानती हैं कि वे किन परिस्थितियों से निकलकर यहां तक पहुंची हैं। उन्होंने कितना पसीना बहाया है, कितनी मेहनत की है।
इन लड़कियों का बाप मुख्यमंत्री नहीं है, जो ये उनके रसूख के दम पर सीधे मैदान में पहुंचे, खुद टीम में शामिल हो जाएं और खुद को ही टीम का कप्तान घोषित कर दें। हां और बाद में खेल मंत्री भी बन जाएं..!!!
जिस पृष्ठभूमि से यह लड़कियां आई हैं वहां हाथ में हॉकी स्टिक लेकर मैदान में पहुंचना माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने जैसी चुनौती होता है।
पद और टिकट के लिए पार्टियां बदल लेने वाले एक नेता जी सोशल मीडिया पर इन लड़कियों को मेडल ना मिलने पर अफसोस ना करने की सीख दे रहे थे। वही नेता जी जो टिकट न मिलने पर नई पार्टी में आ गए हैं। न
कोई संदेह नहीं है कि भारतीय टीम बहुत अच्छा खेली। जैसे ही वे सेमीफाइनल में पहुंचे वातावरण भावुक हो गया। हमारे देश में चुनाव से लेकर मनोरंजन तक भावनाओं से खिलवाड़ की ही कहानी है। कल तक जिस हॉकी टीम के पास प्रायोजक नहीं थे उसी हॉकी टीम के फुटेज लेकर औद्योगिक घरानों ने अपने अपने विज्ञापन जारी किए।
जब येे टीम कहीं नहीं थी तब से भारत का सबसे गरीब राज्य कहा जाने वाला उड़ीसा इस टीम के साथ खड़ा था। उस राज्य का वो मुख्यमंत्री जो बिना किसी हो हल्ले के चुपचाप अपना काम करने के लिए जाना जाता है। कोई अभियान, कोई इवेंट बाजी, कोई नाज नखरे नहीं और भुवनेश्वर को 100% वैक्सीनाइज कर दिया। ठीक वैसा ही कमाल भारतीय हॉकी ने भी दिखाया। फंतासी क्रिकेट लीग के नाम पर घर-घर चल रहे क्रिकेट के सट्टे और हल्ले के बीच हॉकी कब अपने पुराने गौरव तक पहुंच गई, ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं चला।
कभी मीराबाई चानू, रानी रामपाल और मनदीप सिंह के साथ ही मेडल जीतने वाले दूसरे खिलाड़ियों के सोशल मीडिया अकाउंट पर जाइए। आप पाएंगे कि आईपीएल का अदना सा खिलाड़ी, जिसने एक आध मैच में ठीक-ठाक रन बनाए हो, उसके फॉलोअर्स इनसे कई गुना ज्यादा हैं। क्या किसी को फॉलो करने केेेे पैसे लगते हैं ?
देश के किसी भी हिस्से में मंत्री या मुख्यमंत्री का दौरा हो तो साफ सफाई हो जाती है। यहां तक की सड़क भी बन जाती है। वहीं लवलीना बोरगोहेन कच्ची सड़क से निकलकर ओलंपिक सेमीफाइनल में पहुंच गई लेकिन निकम्मी सरकारें उनके गांव तक सड़क भी नहीं पहुंचा सकीं।
खिलाड़ी बनना आसान नहीं होता वह भी तब जब कि आप ने क्रिकेट को ना अपनाया हो।
अमित पंघाल अपनी वेट कैटेगरी में दुनिया के पहले नंबर के बॉक्सर हैं लेकिन हममें से कितने लोग उन्हें पहचानते हैं? जब मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग में विश्व रिकॉर्ड बनाया था तो कितने अखबारों ने उसे फ्रंट पेज पर छापा था? कुश्ती पर सुल्तान और दंगल फिल्मों ने जितनी कमाई की थी, उसका 50वां हिस्सा भी असली चैंपियन रवि कुमार नहीं कमा पाएंगे।
सवाल यह है कि हम क्या कर सकते हैं तो कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि 4 साल तक क्रिकेट को अलविदा कहिए और उसके बाद देखिए कि अगले ओलंपिक में हम क्या करते हैं?